Saturday, October 31, 2009

सपने


टूटते हैं सपने
बिखरते हैं सपने
प्रतिकूलताओं के प्रस्तर खण्डों में दब
कलपते हैं सपने
तड़पते हैं सपने

मरकर भी कहां मर पाते हैं सपने
कभी भूत तो कभी जिन बन जाते हैं सपने
तब अक्सर ही सच्चाई की लाशों
डराते हैं ये भूत सपने

धधक चुकी आग में
अन्तिम चिनगारी- से टिमकते हैं सपने
कभी बादल से पानी
तो कभी महुआ बन पेड़ों से गिरते हैं सपने
हर चोट पर
जख्म का बहाना बना
बिना कुछ कहे
चुपके से उग आते हैं सपने


(यह कविता 17 दिस. 2007 को अमर उजाला समाचार पत्र में प्रकाशित है । )

3 comments:

  1. धधकते सपनो का उगकर बडा हो जाना ..........संजिवनी से कम नही दिख रहा..............बहुत ही सुन्दर!

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  2. सपनों के विचित्र संसार को
    सच के दर्पण में निहारती
    उत्तम कविता के लिए
    _अभिनन्दन आपका !

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  3. बहुत सुन्दर !
    सपने ऐसे ही होते हैं.

    दिनकर के शब्दों में --

    आदमी का स्वप्न है वह बुलबुला जल का
    जो आज उठता और कल फिर फूट जाता है
    किन्तु फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
    जो बुलबुलों से खेलता कविता बनाता है

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