विलियम गोल्डिंग अंग्रेजी के एक महान उपन्यासकार हैं । अपने प्रसिद्ध नोबल पुरस्कृत उपन्यास “लार्ड आफ़ द फ़्लाइज़” में इन्होंने दिखाया है कि बच्चे भी निर्दोष (Innocent) नहीं होते ।उपन्यास में एक स्कूल के बारह वर्ष तक की उम्र के बच्चों का एक दल छोटे से सुनसान द्वीप पर बिना किसी वयस्क के पहुच जाता है । जीवन के लिये उपयुक्त सभी परिस्थितियों के होते हुये भी ये बच्चे अन्ततः हिंसक हो उठते हैं एवं एक दूसरे की हत्या करने लगते हैं ।
वे बच्चे नहीं थे ,
गोल्डिंग ! ! !
मैं कहना चाहूंगा तुमसे
कि जिन्हें
छोड़ा था तुमने
उस निर्जन सुनसान
प्रौढ़ रहित द्वीप पर
वे बच्चे नहीं थे !
वे मात्र
परावर्तन थे
“विकसित” “आधुनिक” व “सभ्य”
मानव की उत्क्षिप्त ,
विकराल व भ्रष्ट अवधारणाऒं के ।
जिन्होंने
अपने बालपन के
सहज सारल्य व
नैसर्गिक सौन्दर्य की अनुपम सुषमा
को बिसारकर कलुषित करते हुये
तुम्हारे रचे उस स्वप्न द्वीप में
मानवीय अन्तःस्थल स्थित
सहजात पाशविक विषण्णता का
पुनरारम्भ किया ,
वे बच्चे नहीं थे ,,,,
वे बस
उन स्मृतियों के विकास मात्र थे
जिसमें मां ने पहली बार
अस्वीकार की थी उनकी कोई मनुहार
और प्राप्त हुआ था उन्हें
बर्बर झिड़कियों से युक्त
एक हिंसक प्रत्युत्तर ! !
पारस्परिक विद्वेषों व
आन्तरिक स्वार्थों के वशीभूत हो
जो अन्ततः करने लगे थे
एक दूसरे की नृशंस हत्यायें ,
वे बच्चे नहीं थे !
वे बस
उन प्रकियाऒं के विश्लेषण मात्र थे
जिसमें
एक छोटी सी गलती पर,
कक्षा में उनकी द्वितीयता पर
पिता ने तोड़ दी थी
क्रूरता की सारी हदें
और दिया था उन्हें
हिंसा एक नवीन संस्कार !!!!
वे बच्चे नहीं
मात्र
परावर्तन थे ।
*यह कविता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से प्रकाशित होने वाली पत्रिका “सम्भावना” ,मार्च २००७ में छप चुकी है । यहां थोड़े से सुधार के साथ पुनः प्रस्तुत कर रहा हूं।
वे बच्चे नहीं थे ,
गोल्डिंग ! ! !
मैं कहना चाहूंगा तुमसे
कि जिन्हें
छोड़ा था तुमने
उस निर्जन सुनसान
प्रौढ़ रहित द्वीप पर
वे बच्चे नहीं थे !
वे मात्र
परावर्तन थे
“विकसित” “आधुनिक” व “सभ्य”
मानव की उत्क्षिप्त ,
विकराल व भ्रष्ट अवधारणाऒं के ।
जिन्होंने
अपने बालपन के
सहज सारल्य व
नैसर्गिक सौन्दर्य की अनुपम सुषमा
को बिसारकर कलुषित करते हुये
तुम्हारे रचे उस स्वप्न द्वीप में
मानवीय अन्तःस्थल स्थित
सहजात पाशविक विषण्णता का
पुनरारम्भ किया ,
वे बच्चे नहीं थे ,,,,
वे बस
उन स्मृतियों के विकास मात्र थे
जिसमें मां ने पहली बार
अस्वीकार की थी उनकी कोई मनुहार
और प्राप्त हुआ था उन्हें
बर्बर झिड़कियों से युक्त
एक हिंसक प्रत्युत्तर ! !
पारस्परिक विद्वेषों व
आन्तरिक स्वार्थों के वशीभूत हो
जो अन्ततः करने लगे थे
एक दूसरे की नृशंस हत्यायें ,
वे बच्चे नहीं थे !
वे बस
उन प्रकियाऒं के विश्लेषण मात्र थे
जिसमें
एक छोटी सी गलती पर,
कक्षा में उनकी द्वितीयता पर
पिता ने तोड़ दी थी
क्रूरता की सारी हदें
और दिया था उन्हें
हिंसा एक नवीन संस्कार !!!!
वे बच्चे नहीं
मात्र
परावर्तन थे ।
*यह कविता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से प्रकाशित होने वाली पत्रिका “सम्भावना” ,मार्च २००७ में छप चुकी है । यहां थोड़े से सुधार के साथ पुनः प्रस्तुत कर रहा हूं।
बहुत खूब
ReplyDeleteयथार्थ से परिपूर्ण कविता ...
aapki kavita ne punah ek baar isi vishay par sochne ko majboor kar diya ki kya vaastav mein sabhyata aur sanskaar ek aavran matra hai jise samaj k bhay se hamne apne upar daal rakha hai ?...mata-pita ki jhidkiyaan ho ya kroor sajaein..akhir ye bhi to unaka prayas hai samaj mein apne aur apni aane wali peedhi ko uchh sthaan dilane ka...yadi mata-pita ki in baaton se sakaratmak seekh na lekar hum hinsa roopi nakaratmak sanskaar grahan karte hain...to ye bhi to kahin bahut gehrai mein janm se hi hamare andar rehne waale kaalepan ko hi to dikhata hai.....
ReplyDeleteaapki kavita ek baar phir mujhse yehi keh rahi hai..."evil resides deep within every human..." is vishay par abhi bahut sochna baaki hai...isliye abhi tippadi karne ki sthiti mein nahi hoon...kisi prakaar ki agyanta k liye kshma chaahti hoon... sarahneeya kavita ...bahut badhai....
अत्यन्त परिपक्व रचना ! अब समझ रहा हूँ -
ReplyDelete"Genius is born and genius is as born" में अंतर है ।
Bhai aapko maan gaye !!! Aisa laga ki jo main kahna chahta tha wo aapne kah diya. Mujhmein to kavita likne ki saamrthya nahi hai par aapko padh kar man mein laga ki aap jo kah rahe hai wo darasal bahot log kahna chahte honge. Aapko shat shat naman.
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