दुख के आगोश में
खामोश हरे पेड़ो ने
छोड़ दिया
अपने अन्तर की उष्मा को
संचित रखने का
अन्तिम आग्रह !
शाम की जर्द पीली धूप ने
सूरज के न चाहते हुये भी
पेड़ो को देने के लिये
कुछ गर्म सपनों की खातिर
किसी पुराने मकान के
मटमैले जर्जर छ्ज्जे पर
खुद को निचोड़ दिया
एकदम अन्दर तक------अन्तिम तह तक !
लेकिन……………..s..s..s..s…s
झरा कुछ भी नहीं सिवाय
दो बूंद ठण्डे
अपदार्थ , अभौतिक , पीलेपन के !
छज्जे पर बैठी गौरैया
बिना चूं चूं किये उड़ गयी
दरार में उगा हिजड़ा पीपल हिलने लगा !
और वर्षों पहले पेन्ट की हुयी
खदरती खिड़की की कुण्डी खॊल
घर में अकेले रहने वाले बुढ्ढे ने
छज्जे पर पिच्च से थूक दी सुर्ती !
धूप
पीलेपन
पीपल
और बुढ्ढे -----
सबसे सर्वथा मुक्त ,
आग्रहहीन एवं
हर दृष्टिकोण से सरलीकृत
पेड़ॊ की हर डाल
हर पात पर
उतर आयी
जाड़----
ठंडी
सफेद
शुष्क !
ठंडी
सफेद
शुष्क !
एक विहंगम द्रश्य: सार्थक प्रयत्न...।
ReplyDeleteएक गेंद आती थी .....जिसे हिलाने पर खड़ - खड़ की आवाज़ आती थी .... कविता की गेंद में भी यह खड़ - खड़ ज़रूरी है .... खड़खड़ाने वाला मोती इस कविता में है .... मूल्य.... ' है '..
ReplyDeleteकुछ ज्यादा ही अब्स्ट्रेक्त लग रही है
ReplyDeleteपेड़ो की हर पात पर जाड़ को तमाम अर्थहीन सन्दर्भों के बावजूद आपने देख ही लिया
ReplyDeleteनये बिंब। सफल प्रयोग। अच्छी लगी कविता।
ReplyDelete@जाड़----
ReplyDeleteठंडी
सफेद
शुष्क !
..कंपकंपा दिया !
"हिजड़ा पीपल"-- एकदम नया प्रयोग.
kamaal ka varnan hai... ab iske aage aur kya kaha jaye...
ReplyDeleteठंड को क्या मालूम, क्या बीत रहा था उसके पहले.
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