सोचा था
चलेगें सिन्धु की थाह लेने
नीली अतल गहराइयों की
स्वयं पर एक छाप लेने ।
था स्वप्न चलेंगे एक बार
निरखने विशद अनुभूतियॊं के
गहन कानन लता कुंज गह्वर ,
चुनेगें कुछ पुष्प
चेतना की सजावट को
संघनित आर्द्र भाव अवगुंठनों के।
अजाने मन की
हुलसती एक चाहना थी
उड़ेगें हम भी संवेदना के प्रसार में ,
बतियायेगें
व्योम के निस्तब्ध वितान से
गहन मौन की बातें ।
वृन्त पर जो पुष्प है चुप समर्पित
उससे भी मिलेगें जानने को उसका समर्पण
अपने निविड़ एकान्त में वह किस तरह
देता है स्वयं को , अवसन्न , अशेष
अम्बर की निस्सीम विशालता को ?
सांझ की नीलम पट्टिका ओढ़
सुदूर बहुत सलिल तीरे ,स्तब्ध
सो रही है जो हरे गाछों की घनी बस्ती
जिन पर चांद से चुरायी चन्द्रिका को
बना अच्छत छींटते हैं प्रकाश कीट
विशाल वृक्ष जिनमें , अर्द्ध-मुखरित , स्तिमित
कर रहें हैं श्रेयस सांध्य गीत मौन वाचन
मौन ही की धुन पर , लयमयी , सुरमयी
सोचा था
सुनेगें
गुनेगें उन्हें भी ।
किन्तु
नियति तो यह थी नहीं ।
फिर लौट आये हैं
चेतना के हंस कछारों से ही ।
गहनता
फिर एक स्वप्न बन कर रह गयी है ।
गये थे थाह लेने अतल गहराइयों की
लेकिन
ठगा है खुद ही ने खुद को,
फिर उथले किनारों से ही लौट आये हैं !
waah adbhut rachna
ReplyDeleteफिर लौट आये हैं
ReplyDeleteचेतना के हंस कछारों से ही ।
ये हंस लौटे ही इसलिये हैं क्योकि उन्हें फिर से उड़ान भरनी है. उन्हें अपने पंख के जख़्म ठीक होने दीजिये ये गगन तक हो आयेंगे.
बेमिसाल रचना
बहुत सुन्दर
आईये जानें .... क्या हम मन के गुलाम हैं!
ReplyDelete@ सांझ की नीलम पट्टिका ओढ़
ReplyDeleteसुदूर बहुत सलिल तीरे ,स्तब्ध
सो रही है जो हरे गाछों की घनी बस्ती
जिन पर चांद से चुरायी चन्द्रिका को
बना अच्छत छींटते हैं प्रकाश कीट
विशाल वृक्ष जिनमें , अर्द्ध-मुखरित , स्तिमित
कर रहें हैं श्रेयस सांध्य गीत मौन वाचन
मौन ही की धुन पर , लयमयी , सुरमयी
सोचा था
सुनेगें
गुनेगें उन्हें भी ।
कई बार, बार, बार पढ़ा इन पंक्तियों को। दृश्य मन कैनवस पर अंकित - निहार निहार पुलकित होता रहा। इतना सजीव, गहन और प्रयासहीन बिंब ! प्रवाह ग़जब, कौन कहता है कि गेय होने के लिए मात्रा और सलेबल्स की छन्दबद्धता होनी चाहिए ?
@ चांद से चुरायी चन्द्रिका को
बना अच्छत छींटते हैं प्रकाश कीट
ओह! बारम्बार ध्यान जा रहा है।
प्रातबेला को गीतमय बना दिया तुमने ! आभार। Poetry.. joy forever...
कविता तो बहुत अच्छी है लेकिन यह कोई अनुभवी कलम लिखती तो बात समझ में आती.
ReplyDeleteआप जैसे युवा ..फिर लौट आये हैं चेतना के हंस कछारों से ही..ठगा है खुद ही ने खुद को..लिखेंगे, तो चिता होगी.. लिखिए कि चेतना के हंस अकुलाए हैं हारे नहीं हैं फिर तयारी कर रहे हैं नई उड़ान की.
आपकी नादमयी कविता हर बार भावनाओं की गहनता की एक नयी तासीर दे जाती है -चिरंजीव !
ReplyDeleteसही बात है इन्सान खुद से ही ठगा जाता है। अच्छी कविता है आशीर्वाद्
ReplyDeleteकहाँ-कहाँ घूमता है कवि ! उम्र बंधन नहीं उसके लिए ।
ReplyDeleteजोरदार कविता !
गिरिजेश भईया द्वारा उद्धृत अंश अद्भुत है ! मूक पी रहे हैं उसे ! सब पढेंगे..पियेंगे..चुप ही रहेंगे !
अनुपम । जीयो !
शानदार पोस्ट है...
ReplyDeleteमौन ...
ReplyDeletemere liye ye samajh pana asan nahi hai but nice bcoz i cat do that stuff
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाषा उअर बहुत सुन्दर रचना....आनंद आया
ReplyDeletesunder sahityik bhasha ka prayog bahut acchha laga.
ReplyDeleteलौट आये हैं उथले किनारों से तो क्या हुआ...
ReplyDeleteपलकों के अधर खुलेंगे..
मूक नयन बोलेंगे
अंकुर अंकुरायेगा
अभिनव उल्लास भर जाएगा....
मंगलवार 15- 06- 2010 को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com/
कितना सुन्दर लिखा है..... बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत बढि़या!!
ReplyDeleteअंतरजाल पर इस कोटि का रचनाएँ
ReplyDeleteकम ही पढ़ने को मिल पाती हैं!
--
आपसे मिलवाने के लिए संगीता स्वरूप जी को धन्यवाद!
--
हम भी उड़ते
हँसी का टुकड़ा पाने को!
bahut khubsurat shabd sanyojan aur bhav bhi uttam ...likhte rahein
ReplyDeleteगये थे थाह लेने अतल गहराइयों की
ReplyDeleteलेकिन
ठगा है खुद ही ने खुद को,
फिर उथले किनारों से ही लौट आये हैं ...
कवि और कवि का मन मौन नही रहता ...विचरता है पूरी श्रीष्टि में ... फिर लौट आता है हक़ीकत के कठोर धरातल पर ... पुन्ह उड़ान के लिए ...
ठगा है खुद ही ने खुद को,फिर उथले किनारों से ही लौट आये हैं.......बहुत सुन्दर.... मुझे आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा..आपसे परिचय करवाने के लिए 'चर्चा मंच' और श्रीमती संगीता स्वरुप जी के प्रति आभार.
ReplyDeleteसादर
पवन धीमान
0050938050683
.......................................
ReplyDelete.................................
गहन वैचारिक और भावनात्मक आयाम लिये हुए एक पूर्ण और कालजयी रचना !
ReplyDeleteअद्भुत ! अनुपम ! अद्वितीय !
.वाह अद्भुत ,क्या रचते हो अभिषेक! इस बार तो मनमोहक मदमाती संगीत की रुनझुन सी लगी यह कविता -लांग लिव !
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