दिनभर सो कर उठा हूं मैं चलूं कुछ काम करूं ………..! ..कवि (जो खुद युवा है) को अपनी गलती का एहसास है कि दिन (24 घंटे में दिन भी युवावस्था का ही प्रतीक है) को, सो कर नष्ट किया । अब नहीं ...अब कुछ काम करना चाहिए। ऐसा लिखकर वह दूसरे युवाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत भी बनता है। ..आगे वह सचेत करता है कि ..जिन्दगी ऐसे तो नहीं चलती ! ..इस जागरूकता, इस चैतन्यता के बाद तो जीवन सार्थक होना ही हुआ न !
Yeah, you really need to act (चलो अब कुछ काम करो!). I've always appreciated the tone and texture of your poetry but, i think you will confess, you are not suppose to confine yourself. Your poetic talent, like your personality, is ambivalent but, this time, it seems that ambivalence has become your deliberate and self imposed notion of excellency.The frank and communicative mode has taken the form of a clog, albeit it is in trend. I love Arjaa for his innovative outlook not for his preoccupied innovation. Anyway, the poem is what it meant.........the boredom, the alienation and the culmination of scattered pain, all in whole takes the shape of modern art and strikes the boundaries to fix its open-endness. I liked it! ( what else can i say as it is but a poem)
एकदम से जो चल रहा हो मन में या उसके इर्द-गिर्द उसे समझना भी मुश्किल होता क्यूंकि खुद को निरखने वाली आँखें भौतिक रूप से हैं नही हमारे पास। एक तत्पर सजग मन में जब मौन प्राकृतिक शोर में भी सधता है तब कहीं अपनी विषय-वस्तु के बारे में थोड़ा-बहुत एहसास होता है। फिर उसे कविता में उकेर ले जाना कुछ इसतरहा कि वो 'सहज' बनी रह जाय...इतना आसान तो नही। आर्जव मै तुम्हें बधाई देता हूँ। ऐसे दिन नही आते क्या जीवन में...? फिर इसमें बुरा क्या है...? मेरे तो तमाम दिन यों ही गुजरे हैं अलग-अलग बहानों के साथ...पर end of the day कुछ ऐसा हाथ भी लगा जो बहुत किताबों या तमाम सिद्ध बूढ़ों की संगत में भी संभव नही रहा...!
जबतक अपना महसूसा लिख पा रहे हो...प्लीज लिखो यार.....मुझे बेहद अच्छी लगी यह कविता। यों ही सरके हुए दिनों की रातों में सपने नही आते। नींद पूरी आती है और अगले दिन नवल स्फूर्ति आपकी प्रतीक्षा करती मिलती है....! मेरे तरफ से 5 में से 4.5 अंक मित्र....तो क्या हुआ मै बहुत बड़ा आलोचक नही हूँ......!
sham ke drishya ko bakhubi dikhaya gaya hai.lekin agar aap din bhar sokar phir sham ko kam karna shuru karenge to agle din bhi aapko sona padega. MUJHE AAPKI AUR KAVITAYE ACHHI LAGI.
गलत वक्त ये रुमान तनिक नहीं भाया, भाया !
ReplyDeleteआपकी कविताएँ अब stereotyped होती जा रही हैं .. आपका कवि मन और और और सम्भावनाओं वाला है.. अमल करियेगा
ReplyDeleteअच्छा !
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ReplyDeleteअनूपने मन की बात कह दी...सहमत हूँ ..
ReplyDeleteयह केवल सहमति के लिए ...
चलिए इस कविता में अच्छी बातें ढ़ूंढते हैं...
ReplyDeleteदिनभर सो कर उठा हूं मैं
चलूं कुछ काम करूं ………..!
..कवि (जो खुद युवा है) को अपनी गलती का एहसास है कि दिन (24 घंटे में दिन भी युवावस्था का ही प्रतीक है) को, सो कर नष्ट किया । अब नहीं ...अब कुछ काम करना चाहिए। ऐसा लिखकर वह दूसरे युवाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत भी बनता है।
..आगे वह सचेत करता है कि ..जिन्दगी ऐसे तो नहीं चलती !
..इस जागरूकता, इस चैतन्यता के बाद तो जीवन सार्थक होना ही हुआ न !
अपनी निजी काव्य-भाषा के विकास के विभिन्न सोपान दर्शाती हैं यह कवितायेँ . इन्हें stereotyped होना नहीं कहा जाना चाहिए.
ReplyDeleteYeah, you really need to act (चलो अब कुछ काम करो!). I've always appreciated the tone and texture of your poetry but, i think you will confess, you are not suppose to confine yourself. Your poetic talent, like your personality, is ambivalent but, this time, it seems that ambivalence has become your deliberate and self imposed notion of excellency.The frank and communicative mode has taken the form of a clog, albeit it is in trend. I love Arjaa for his innovative outlook not for his preoccupied innovation. Anyway, the poem is what it meant.........the boredom, the alienation and the culmination of scattered pain, all in whole takes the shape of modern art and strikes the boundaries to fix its open-endness. I liked it! ( what else can i say as it is but a poem)
ReplyDeleteझूठे…खोखले….प्रसंग !
ReplyDeleteजबर्दस्ती थोपा हुआ….विषय-वस्तु!
लडखडाती...बहकती……..…लय !
खुले गलियारों में बिखरे
सूखॆ ,नीरस, बोझिल काले शब्द!
कहीं ये आधुनिक कविता के
कुछ और नाम तो नहीं ?
! !
! !
! !
दिनभर खट कर आया हूं मैं
चलूं कुछ आराम करूं ………..!
यह विमर्श तो ऐसे ही चलता आया है !
चलता रहता है….
और चलता रहेगा…………….!
समझ गया भईया ! अगली पोस्ट बहुत सोच समझ कर होगी .....:)
ReplyDeletelolz
ReplyDeletesab ekatthey peechhey pad gaye yaar
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteएकदम से जो चल रहा हो मन में या उसके इर्द-गिर्द उसे समझना भी मुश्किल होता क्यूंकि खुद को निरखने वाली आँखें भौतिक रूप से हैं नही हमारे पास। एक तत्पर सजग मन में जब मौन प्राकृतिक शोर में भी सधता है तब कहीं अपनी विषय-वस्तु के बारे में थोड़ा-बहुत एहसास होता है। फिर उसे कविता में उकेर ले जाना कुछ इसतरहा कि वो 'सहज' बनी रह जाय...इतना आसान तो नही। आर्जव मै तुम्हें बधाई देता हूँ।
ReplyDeleteऐसे दिन नही आते क्या जीवन में...? फिर इसमें बुरा क्या है...? मेरे तो तमाम दिन यों ही गुजरे हैं अलग-अलग बहानों के साथ...पर end of the day कुछ ऐसा हाथ भी लगा जो बहुत किताबों या तमाम सिद्ध बूढ़ों की संगत में भी संभव नही रहा...!
जबतक अपना महसूसा लिख पा रहे हो...प्लीज लिखो यार.....मुझे बेहद अच्छी लगी यह कविता। यों ही सरके हुए दिनों की रातों में सपने नही आते। नींद पूरी आती है और अगले दिन नवल स्फूर्ति आपकी प्रतीक्षा करती मिलती है....! मेरे तरफ से 5 में से 4.5 अंक मित्र....तो क्या हुआ मै बहुत बड़ा आलोचक नही हूँ......!
जिंदगी का अफसाना या जिंदगी की हकीकत.
ReplyDeletesham ke drishya ko bakhubi dikhaya gaya hai.lekin agar aap din bhar sokar phir sham ko kam karna shuru karenge to agle din bhi aapko sona padega. MUJHE AAPKI AUR KAVITAYE ACHHI LAGI.
ReplyDeletevery nice....
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