अनवरत गुजरते हुये
हर द्वार पर से
बिना प्रतीक्षा किये
किसी की भी
कुछ की भी !
अहर्निश गतिशील रहते हुये भी
समय बच गया था
धुले गये बरतन किनारे
छुपी रह गयी चिकनायी की तरह ,
टॆबल ग्लास पर
पोछे जाने के बाद भी
चुपचाप बिछी रह गयी
एक पतली परत धूल की तरह
समय बच गया था ,
अनबीता !
स्मृतियों में फंसे....
न जिये जा सके
टुकड़े टुकड़े जीवन को
फिर से दिये जाने के लिये ,
काल चक्र की इस किताब के
कुछ पात्रों,
कुछ संवादों को
फिर से,
ठहर कर ,
ठीक से
सुने जाने के लिये,
सुने जाने के लिये,
दुहराये जाने को
दिये जाने के लिये
दिये जाने के लिये
समय बच गया था !
दोपहर के घने नीरव सन्नाटे में
अलमारी में लाइन से सजी
अनेक किताबों की चुप्पी को
समझते हुये मैंने पाया कि
समय बच गया था ,
उन किताबों के पीछे
उजागर होते ही
कहीं और टिकुरने के लिये सरकती,
कोने में सटकी
छिपकली की तरह
कोने में सटकी
छिपकली की तरह
समय बच गया था
मन में ,
स्मृति में ,
किसी किताब में
किसी पात्र के जरिये
फिर से गुजरने को !
जियो आर्जव! हजार साल जियो ... तुम्हारी कविता तो बस!
ReplyDeleteसमय बच गया था,
अनवरत गुजरते हुये
हर द्वार पर से
बिना प्रतीक्षा किये
किसी की भी
कुछ की भी !
समय को इस अंदाज़ में देख पाना तो शायद किसी अष्टावक्र , किसी स्टीफन हाकिंस के लिए भी सम्भव नहीं रहा होगा ...
फिर से दिये जाने के लिये ,
काल चक्र की इस किताब के
कुछ पात्रों व्दारा
कहे गये संवादों को
फिर से
ठहर कर ,
ठीक से सुने जाने के लिये
दुहराये जाने को देने के लिये...इस अंश को जरा दुबारा देखना ..शयद सुधार की कोई गुंजायश है ऐसा मुझे लगता है ..लेकिन कुल जमा कविता बहुत बहुत सुंदर है ..वधाई !
शानदार।
ReplyDeleteachhi hai yr ye
ReplyDeleteबेहतर!
ReplyDeletebhut hi khubsurat panktiya...
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteaaj bahut dino baad blog dekha aur sabse pahle apke blog par aayee, aur bas yaheen reh gayee. har kavita nayee, shaili nayee aur bhav jana pehchana sa.... bahut khoobsoorat. aapki kavitaon ko padhna advitiya anubhav hota hai, dhanyavaad.
ReplyDelete@ Ismitaa .....itane man se kavitaaye padhne ke liye haardik dhanyvaad !
ReplyDeleteबचे हुए समय की कविता..! और वह भी इस आपाधापी में..! सुकून देती कविता.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.... रचना भी जानदार लगी ... आभार
ReplyDeleteदोपहर के घने नीरव सन्नाटे में
ReplyDeleteअलमारी में लाइन से सजी
अनेक किताबों की चुप्पी को
समझते हुये मैंने पाया कि
समय बच गया था......
बहुत सुन्दर अभिषेक !
तुम्हारी कविताएँ पढ़कर ऐसा लगता है जैसे जीवन के बहुत से ऐसे पल सजीव हो उठते हैं जिन्हें कभी बहुत सिद्दत से जिया था.
तुम्हारी लेखनी से निरंतर सुन्दर रचनाओं का प्रवाह देखकर मन प्रफुल्लित हो उठता है.
अनेक शुभकामनाएँ !