कुछ कविताएं
दुख में लिखी जाएंगी
उससे इतर
किसी अन्य दुख में
पढ़े जाने के लिए।
जिन्हें जवाब देना चाहिए
वे प्रश्न पूछ रहे हैं।
जिन्हें कटघरे में खड़ा होना चाहिए
वे निर्णय लिख रहे हैं।
जिन्हें चुप रहना चाहिए
वे लगातार बोल रहे हैं।
यही मेरे देश का लोकतंत्र है।
सरकारें हो या आम आदमी
यही मंत्र है
बातें बहुत बड़ी बड़ी
काम के नाम पर गोला !
बहुत बेहतर है
रोजमर्रा के कामों में
इतना अधिक व्यस्त हो जाना
हर रोज
कि
उनसे बात करने
उन्हें याद करने की
फ़ुरसत ही न हो
जिनसे
कभी प्यार था
अब नहीं है।
अथाह विस्तृत यात्राओं में
अपने अकेलेपन के साथ
अकेले होना ।
चलती गाड़ी की
खिड़की से
सूदूर शांत क्षितिज
तकना।
किसी खो चुके
ईश्वर की याद में
उदास होना।
यही सब करता हूं
कभी कभी मैं
अपने होने
अपने अस्तित्व की चहारदीवारी
पर बैठ
बाहर देखते हुए
चाय पीते हुए।
तथागत !
मिलोगे कभी फिर
तो सुनूंगा मैं
तुमसे तुम्हारी
वह पुरानी कविता ...
"जीवन
दुख है."
और फिर
कहूंगा तुमसे
कि
इस छोटी सी कविता में
मुझे मिला बड़ा सुख है।
धर्म
जब काव्य से छूटता है
तो
टूटता है
उद्धत होता है
कट्टर होता है !
गीत की भाषा में ढलकर
दुख
ईश्वर
जीवन
सत्य
सब वहनीय हो जाते हैं !
सौम्य हो जाते हैं !
हम सब की
रोजमर्रा की कहानी
हम सब पर
एक जिम्मेदारी होती है।
उसे
कह देना
उससे
निवृत्त हो लेना है।
संसार
भाषा है।
भाषा
माया है।
भाषा ही
भ्रम देती है
बंधती है उसमें
जो है ही नहीं
स्वयं के छद्म विवरण
को विस्तार देती है
संवाद का आभास रचती है
पिशाचिनी !
जब हम किसी को देखते है
आंखों से
तो हम देखते हैं उसके
हाथ पैर
नाक आंख
घुटने गरदन
और इस बीच
हम
पूरी तरह
भूल जाते हैं कि
उसमें एक आत्मा
भी रहती है
फुग्गे जैसी
Click Image Source |
Click Image Source |