Sunday, August 20, 2017

घने जगंलों में



घने जगंलों में
मैं बहुत दूर निकल आया था ।
बहुत दूर ।
जगंलों के भीतर बहुत भीतर
बेतरतीब बिखरे खोये हुये उन रास्तों के पार
जिनपर कभी कोई पथिक गया ही नहीं
वहां आदमी के पास
अपने सीधे साधे जंगलीपन के गुल्म में लिपटी
नवजात धवल आदमीयता के अलावा कुछ और था ही नहीं,
वहां
घने अंधेरों के पार
मैंने प्यार और उजालॊं की बड़ी बड़ी खानें पायी
पाये निश्चल प्यार के चमकीले कौस्तुभ, 
स्पष्ट भावनाओं के हरे मरकत !
थे वहां नश्वरता की नीली रोशनी में
दमकते कुछ ऐसे फूल
जिनसें एक तरह की
न कही जा सकने वाली न समझी जा सकने वाली शाश्वतता लिए
भासित उज्जवल रक्तिम अभ्र झरता था !

बहुत सी पीले पन्नों वाली किताबों की कब्र से बाहर सरक आये
अनेक मिथकीय पात्रों भरी
सपनॊं , गल्पॊं व किंवदन्तियों की अनगिन झाड़ियां
जिनपर कवितायें बिखरी हुयी थी कहीं खिलकर सूख गये लाल टहकार फूल की तरह
तो कहीं किसी बहुत पुरानी साधारण सी कहानी में रोती हुयी लड़की के अन्तिम बूंद आसू की तरह !
इन सब को पार कर मैं
इन घने जंगलों में बहुत दूर निकल आया था !

यहां बादलॊं में प्रेम सघन घनत्व में
पानी की तरह पुता हुआ था ,
जो
सुन्न रात में 
चांदी के बुरादे जड़ी शुभ्र वस्त्र आवृत
प्रागऎतिहासिक मांसल प्रेम स्मृतियों सी
एक के पीछॆ एक , स्थगित सम्बध्दता लिये खड़ी
समुद्री नील पहाड़ियों व सम्मुख उसके
पुरिया धनश्री के गिरान वाले स्वर जैसी
एक गहरे गर्त-सी बजती
घाटी की कगार पर खड़े हो निहारते हुये
कभी आती सांस पर कभी जाती सांस पर
वैसे ही जम जाता है जैसे
प्रथम पुरुष के अधरों पर जम गये थे
प्रथम स्त्री के अधर प्रथम चुम्बन समय !

इस गहरी घाटियों में
पहाड़ॊं  की विमाओं को समझते हुये
मैं भटक गया था
एक ताजी आदमीयता की क्यारियों में उगने वाले 
बिलकुल अलग तरह से कोमल
बिलकुल अलग तरह से प्रगाढ़
सहज बोध भरे शान्त कर देने वाले
प्रांजल स्नेह सम्पुट धरे
आकाश के बहुत पास विहस आये
इन अद्भुत प्रतानों के जंगलॊं में
मैं बहुत दूर निकल आया था !

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