Saturday, September 30, 2017

निरपेक्ष…..

कभी कभी
मन पर छायी उदासी
इतनी गाढ़ी और पूरी होती है कि
आसपास की दुनिया
उसके दुख, उसके लोग
उन लोगों से जुड़े दुःख,
उनसे ऊपजे सुख
उनकी स्मृतियों को 
सजोनें वाले समय का पतला धागा
उस ठहरी सी तृप्त उदासी में
फंस कर खो से जाते हैं !
किसी कम रोशनी की जगह
पर अकेला खड़ा मैं
सिर्फ और सिर्फ मैं ही
बचा रह जाता हूं
बिना आवाज के
निरपेक्ष…..                                                                                             
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पुरानी कविताएं आगे ....

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