तुम्हारे बिना जाने
मर जाने को
स्वीकार कर लेना
वास्तविक समाप्ति है
उन सब की
जो हमारे बीच था,
प्रेम जैसा
तुम्हारे बिना जाने
मर जाने को
स्वीकार कर लेना
वास्तविक समाप्ति है
उन सब की
जो हमारे बीच था,
प्रेम जैसा
बड़े शहरों
से बचकर हम लौट आते हैं
पुराने छोटे शहरों में
साल के कुछ दिन
पुराने शहरों में
तेज़ी से बदलते वक्त के बावजूद
बहुत कुछ पुराना
बचा रहता है l
मेरे हिस्से के पुराने शहर में
उन जर्जर मकानों से दोस्ती सी है मेरी
जो कम से कम सौ साल पुराने हैं
सड़क की तरफ़ कई दुकानें है
उनमें होते हुए भी अलग लगती हैं उनसे ।
जर्जर मकानों में बीता हुआ शहर रहता है
गलियाँ पुराने बाज़ार बेतरतीब चौराहे
दहलीज़ पर ही रुक जाता है जिनके
नया समय
बच बचाकर
हम पहुँच जाते हैं उन दुकानों में
जिनकी पुरानी मटमैली दराज़ों में
बीते दो तीन दशक
पोटलियों में बंधे रखे हैं ।
हमारे चाहने से नहीं होता
हम शहरों को
एक में एक मिला नहीं सकते ।
उनके भीतर कुछ है
जो उन्हें दूर करता है
उनके बीच की सड़कें
भाषा है
जिसके बावजूद बहुत कुछ
चाहकर भी कहा नहीं जा पाता ,
चाह कर भी, सुना नहीं जा पाता ।
सड़के जोड़ती तो है लेकिन अलग भी करती हैं ।
पुराने शहर व बड़े शहरों को जोड़ती सड़कें
प्रेम से ऊब चुके
लेकिन प्यासे मन सी होती हैं ।
दो शहरों के अलग होने से
उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता ।
पड़ता भी हो , तो दीखता नहीं ।
उन्हें यह पता होता है कि
शहरों को वस्तुत:
सड़कें नहीं कहानियाँ व बिछड़े हुए लोग जोड़ते हैं ।
एक फूल खिलेगा
हवा चलेगी
मौसम ठंडा होगा !
तुम रहोगे क्या तब तक ?
जब मैं लौटूँगा
जब सब ठीक होगा
सांझ सुन्दर होगी
पक्षी लौटेंगे
नीला होगा आकाश
तब तक रुकोगे क्या तुम ?
जब उदासियाँ अर्थहीन हो जाएगी
बातें सरल होगी
हम एक दूसरे के शब्दों को
पहचान पाएंगे
कह पाएंगे सुन पाएंगे
जब हम थोड़ा बहुत मुस्कुरायेंगे
तब तक , रुक पाओगे क्या तुम ?
थोड़ी देर की ख़ामोशियाँ भी परेशान कर देती थी
क्या हुआ कुछ हुआ क्या की फ्रिक हो जाती थी
इश्क़ की शुरुआत के ये दिन भी क्या दिन थे , अच्छा!
अब तो ये है कि जितनी देर खामोशी उतना अच्छा
ज़िक्र था जहान था जोश था खुमार था ज़लज़ला था
हल्की सी खरोंच पर बन्दा आईसीयू उठा लाता था
नयी नयी पहचान के ये दिन भी क्या दिन थे, छलकते थे !
अब तो ये है कि चल रहा है जो चल रहा चलने दे
तारीफ़ों के पुल थे बाग गुलज़ार थे ख़्वाबों के
मनाने रूठने की पतंगें , मंझे उलझते थे जवाबों के
नये दिनों की बात ,गये दिनों की बात भी क्या बात थी देखो !
अब तो अपनी खुद समझते बैठो देखते बैठो ठण्ड रखो !
यह जगह किसी और की स्मृति में हैं
इस जगह की स्मृति में कोई और है
मैं अपने वर्तमान के साथ
इन सब में एक हस्तक्षेप हूँ
होने में , जगह या किसी के ,
शामिल होते हैं
बहुत से अदृश्य बीत चुके अस्तित्व
जैसे वे पुराने क़िले
जिनमें अब मैं नहीं रहता
या वो गाँव में मिट्टी का घर
जो अब नहीं रहा !
थमनें दो नये नये परिचय की
उन्मादी गरज बरस
धुन्ध धुएं से छाये
आवेगों की स्नेहिल बौछारों को !
तुम्हारे मन की प्रेमिल शिशुता
रोप आयी थी कुछ मेरे अन्दर
तुम्हारे देह व्यष्टि की मादक मोदक कोमलता
मेरे तन में कुछ छॊड़ आयी थी,
धीरे धीरे
उन बीजों को जगने दो
कविता बनने दो
मेरे हिय के परिजाती वन में
अपने को उगने दो !
फिर तुम
निर्मल एकाकी वन प्रान्तर का झरना बनना,
शीतल आत्मन्यस्त मन्द धवल !
मैं बिछ जाऊंगा बन प्रस्तर की विशाल शिलाएं
आसपास तुम्हारे.
सुनूंगा अपने ऊपर से
तुम्हारे गुजरने का
अनहद अहर्निश संगीत !
तुम बनना फिर चिड़िया
गीत गाती प्रेम-सुधि के, बोधि के सुदूर नीले जंगलों में
मैं वृक्ष बंनूगा देवदार का
तुम्हारे मधु-गान को
सूरज की धूप सा सोखता रहूँगा !
तुम आना मेरे पास
किसी वृक्ष पर फूल की तरह
हम दोनों
अपना होना मिलाकर एक में
दें आएँगें
किसी और धरती को
एक स्वप्न की तरह ।
दिसंबर के कमजोर अपराह्न में
सूरज की स्मृतियों से छीजती धूप
कमरे में तिरछे दाख़िल होती है
शेल्फ़ पर रखे सामानों की छायाएँ
पीली दीवार पर उकेरतीं !
कमरे के भीतरी ठण्डेपन में
छायाएँ एक-दूसरे में गड्ड मड्ड होती हैं
जैसे जीवन के दूसरे हिस्से में
गड्ड मड्ड हो जाते हैं
मन के कई सारे भाव
उदासी नेह विछोह अपनत्व
एक दूर दूर का, अ वैयक्तिक सा ख़ालीपन
बहुत सी टीसों को ऐसे देखता है
जैसे शेल्फ पर पड़े सामान
एक दूसरे को
दिसंबर के इस अपराह्न में
अनचीन्हे दुख
हवाओं की विदीर्ण नमी पर
दीवार की पीली छायाओं पर
धुंधले आसमान पर
किसी तृप्त अकेलेपन की तरह
फैलते रहते हैं