Sunday, October 23, 2022

पुराने शहर


बड़े शहरों 

से बचकर हम लौट आते हैं 

पुराने छोटे शहरों में 

साल के कुछ दिन 


पुराने शहरों में 

तेज़ी से बदलते वक्त के बावजूद 

बहुत कुछ पुराना 

बचा रहता है l


मेरे  हिस्से के पुराने शहर में 

उन जर्जर मकानों से दोस्ती सी है मेरी 

जो कम से कम सौ साल पुराने हैं 

सड़क की तरफ़ कई दुकानें है 

उनमें होते हुए भी अलग लगती हैं उनसे 


जर्जर मकानों में बीता हुआ शहर रहता है 

गलियाँ पुराने बाज़ार बेतरतीब चौराहे 

दहलीज़ पर ही रुक जाता है जिनके 

नया समय

बच बचाकर 

हम पहुँच जाते हैं उन दुकानों में 

जिनकी पुरानी मटमैली दराज़ों में 

बीते दो तीन दशक 

पोटलियों में बंधे रखे हैं  


हमारे चाहने से नहीं होता 

हम शहरों को 

एक में एक मिला नहीं सकते 

उनके भीतर कुछ है 

जो उन्हें दूर करता है 

उनके बीच की सड़कें 

भाषा है 

जिसके बावजूद बहुत कुछ 

चाहकर भी कहा नहीं जा पाता , 

चाह कर भीसुना नहीं जा पाता 

सड़के जोड़ती तो है लेकिन अलग भी करती हैं 


पुराने शहर  बड़े शहरों को जोड़ती सड़कें 

प्रेम से ऊब चुके 

लेकिन प्यासे मन सी होती हैं  

दो शहरों के अलग होने से 

उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता 

पड़ता भी हो , तो दीखता नहीं 

उन्हें यह पता होता है कि 

शहरों को वस्तुत:

सड़कें नहीं कहानियाँ  बिछड़े हुए लोग जोड़ते हैं  


Saturday, July 9, 2022

तब तक रुकोगे क्या तुम ?

 एक फूल खिलेगा 

हवा चलेगी 

मौसम ठंडा होगा ! 


तुम रहोगे क्या तब तक ? 


जब मैं  लौटूँगा 

जब सब ठीक होगा 

सांझ सुन्दर होगी 

पक्षी लौटेंगे 

नीला होगा आकाश 


तब तक रुकोगे क्या तुम ? 


जब उदासियाँ अर्थहीन हो जाएगी 

बातें  सरल होगी 

हम एक दूसरे के शब्दों को 

पहचान पाएंगे 

कह पाएंगे सुन पाएंगे 

जब हम थोड़ा बहुत मुस्कुरायेंगे 


तब तक , रुक पाओगे क्या तुम ? 

Saturday, January 22, 2022

हरियाणवी हास्य ग़ज़ल

थोड़ी देर की ख़ामोशियाँ भी परेशान कर देती थी 

क्या हुआ कुछ हुआ क्या की फ्रिक हो जाती थी 


इश्क़ की शुरुआत के ये दिन भी क्या दिन थे , अच्छा! 

अब तो ये है कि जितनी देर खामोशी उतना अच्छा 


ज़िक्र था जहान था जोश था खुमार था ज़लज़ला था  

हल्की सी खरोंच पर बन्दा आईसीयू उठा लाता था 


नयी नयी पहचान के ये दिन भी क्या दिन थे, छलकते थे ! 

अब तो ये है कि चल रहा है जो चल रहा चलने दे 


तारीफ़ों के पुल थे बाग गुलज़ार थे ख़्वाबों के 

मनाने रूठने की पतंगें  , मंझे उलझते थे जवाबों के 



नये दिनों की बात ,गये दिनों की बात भी क्या बात थी देखो !

अब तो अपनी खुद समझते बैठो देखते बैठो ठण्ड रखो ! 

Friday, January 21, 2022

हस्तक्षेप

 यह जगह किसी और की स्मृति में हैं

इस जगह की स्मृति में कोई और है 


मैं अपने वर्तमान के साथ 


इन सब में एक हस्तक्षेप हूँ 


होने में , जगह या किसी के , 

शामिल होते हैं 

बहुत से अदृश्य बीत चुके अस्तित्व 


जैसे वे पुराने क़िले 

जिनमें अब मैं नहीं रहता 


या वो गाँव में मिट्टी का घर 

जो अब नहीं रहा !

Wednesday, January 19, 2022

माधवी

 थमनें दो नये नये परिचय की

उन्मादी गरज बरस 

धुन्ध धुएं से छाये 

आवेगों की स्नेहिल बौछारों को ! 


तुम्हारे मन की प्रेमिल शिशुता

रोप आयी थी कुछ मेरे अन्दर 

तुम्हारे देह व्यष्टि की मादक मोदक कोमलता 

मेरे तन में कुछ छॊड़ आयी थी

धीरे धीरे 

उन बीजों को जगने दो

कविता बनने दो 

मेरे हिय के परिजाती वन में 

अपने को उगने दो ! 


फिर तुम 

निर्मल एकाकी वन प्रान्तर का झरना बनना,

शीतल आत्मन्यस्त मन्द धवल !  

मैं बिछ जाऊंगा बन प्रस्तर की विशाल शिलाएं 

आसपास तुम्हारे.   

सुनूंगा अपने ऊपर से 

तुम्हारे गुजरने का 

अनहद अहर्निश संगीत ! 


तुम बनना फिर चिड़िया 

गीत गाती प्रेम-सुधि केबोधि के सुदूर नीले जंगलों में 

मैं वृक्ष बंनूगा  देवदार का 

तुम्हारे मधु-गान को 

सूरज की धूप सा सोखता रहूँगा ! 


तुम आना मेरे पास 

किसी वृक्ष पर फूल की तरह 

हम दोनों 

अपना होना मिलाकर एक में 

दें आएँगें 

किसी और धरती को 

एक स्वप्न की तरह  

Sunday, January 16, 2022

दिसंबर व धूप

 दिसंबर के कमजोर अपराह्न में 

सूरज की स्मृतियों से छीजती धूप 

कमरे में तिरछे दाख़िल होती है 

शेल्फ़ पर रखे सामानों की छायाएँ 

पीली दीवार पर उकेरतीं ! 


कमरे के भीतरी ठण्डेपन में 

छायाएँ एक-दूसरे में गड्ड मड्ड होती हैं 

जैसे जीवन के दूसरे हिस्से में 

गड्ड मड्ड हो जाते हैं 

मन के कई सारे भाव 

उदासी नेह विछोह अपनत्व 


एक दूर दूर का वैयक्तिक सा ख़ालीपन 

बहुत सी टीसों को ऐसे देखता है 

जैसे शेल्फ पर पड़े सामान 

एक दूसरे को 



दिसंबर के इस अपराह्न में 

अनचीन्हे दुख 

हवाओं की विदीर्ण नमी पर 

दीवार की पीली छायाओं पर 

धुंधले आसमान पर 

किसी तृप्त अकेलेपन की तरह 

फैलते रहते हैं