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Sunday, September 19, 2010
वेश्यावृत्ति
जीवन तो
न जाने कब का
चुक गया था
फिर वहां
मौत थी
वही मौत
॒॒॒॒॒॒॒
न जाने क्यॊं
चीजें पैदा हुयी थी
न जाने क्यों चीजें
खत्म हो गयी
फिर वहां
मौत थी
वही मौत
॒॒॒॒॒॒॒
सब फूल झर गये
पंछी सब मर गये
वृन्त सब पीत हुये
शब्दॊं में भर गयी सड़ान्ध
उत्सव की स्मृतियों में लग गये दीमक
मर कर सड़ गया
प्यार
देह को उसकी
नोच कर कौवे
खा गये
फिर वहां
मौत थी
वही मौत
॒॒॒॒॒॒॒
समय ने खॊले
फिर
न जाने कितने
नये चकलाघर
धुंआधार चलने लगी
फिर वही
हां वही
जीवन की अबाध वेश्यावृत्ति
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गजब कविता
ReplyDeleteओह यह मेरी त्रुटि है कि नज़र नही पड़ी इस कविता पर..! आर्जव..बेहद सटीक..अरसे बाद एक बार फिर से उम्दा कविता को पढ़ने को मिली. बेहद सशक्त लेखनी आपकी है बंधू..! और दृष्टि जो आर्जव में है..वह एक दुर्लभ दृष्टि है. यह दुर्लभ दृष्टि दोस्त तुम्हारे शब्द-शब्द से झरती है.सहज-सरल-सतत !
ReplyDeleteफिर वहां
ReplyDeleteमौत थी
वही मौत
..... पर जीवन भी कुछ कम लतखोर नहीं है--पिटता है, रगेदा जाता है,धूल-धूसरित होता है, रिरियाता है, दुर-दुराया जाता है और एक दिन सब झाड-पोंछकर उठ खड़ा होता है ; मौत की आँखों में ऑंखें डालकर कहता है -- कहानी अभी बाकी है, मेरे दोस्त !
फिर वहां
ReplyDeleteमौत थी
वही मौत...
bahut bhavpoorn rachna.... badhai sweekarein... aap mere blog par padhare aur hausla afzai ki iske liya shukriya ....
मैं स्वयं कविता के पथ का पथिक हूँ अभी तक तो मिली नहीं ! इसलिए इस रचना पर कुछ कहना ? हाँ ! रचना ही कहूँगा इसे .. कविता में सत्यम शिवम सुन्दरम का संगम होता है ..यहाँ सत्य तो है, सौंदर्य भी है लेकिन, शिवत्व के स्थान पर कीलकत्व है जो इसे कविता नहीं होने देगा .. जीवन के संदर्भ में तो नहीं; लेकिन, सामाजिक संदर्भ में ऐसी रचनाएँ विष-कन्याओं का पर्याय होती हैं .. बहुत बार अपनी और दूसरों की ऐसी ही रचनाओं में फंसा हूँ.. बहुत दंश झेले हैं ..अनुभव सिद्ध बात कह रहा हूँ..भरत मुनि ने भी सावधान किया था मृत्यु को मंचित करने से ..वही तथ्य रचना पर भी लागू होता है ..लेकिन, रचना में एक छूट है यदि जीवन के अनुपात मे इसे प्रस्तुत करें तो इसके विषाद अवसाद भावों को संतुलित कर सकते हैं...आप सच्चे मायनों में कवि होने की प्रक्रिया में हैं ..इसलिए आप से यह बातें कह रहा हूँ किसी अन्य से नहीं कहता ! शुभम
ReplyDeleteश्यामजी की टिप्पणी से सहमत!
ReplyDeleteअप्रोतिम!
ReplyDelete"कविता में सत्यम शिवम सुन्दरम का संगम होता है ..यहाँ सत्य तो है, सौंदर्य भी है लेकिन, शिवत्व के स्थान पर कीलकत्व है जो इसे कविता नहीं होने देगा .. जीवन के संदर्भ में तो नहीं; लेकिन, सामाजिक संदर्भ में ऐसी रचनाएँ विष-कन्याओं का पर्याय होती हैं ."
ReplyDeleteआर्जव जी इन पंक्तियो पे ध्यान दे कविता में शिवत्व लायें
सुन्दर रचना।
जैसी आपकी आग्या प्रशान्त जी !
ReplyDelete"पर जीवन भी कुछ कम लतखोर नहीं है--पिटता है, रगेदा जाता है,धूल-धूसरित होता है, रिरियाता है, दुर-दुराया जाता है और एक दिन सब झाड-पोंछकर उठ खड़ा होता है ; मौत की आँखों में ऑंखें डालकर कहता है -- कहानी अभी बाकी है, मेरे दोस्त !"
ReplyDeletekya baat hai! shaandaar baat !
हम्म।
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