Wednesday, December 15, 2010

ज्वार

ज्वार आया
और चला गया !

तुम्हारे कुछ
शब्दों के साथ
किनारे रेत में
अटका रह गया मैं !

धूल धूसरित
पहचानहीन
चुप !  

6 comments:

  1. पढ़कर एक शब्द सहसा कौंधा -श्लथ -सस्नेह समर्पित !

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  2. क्या बात है आर्जव ! बहुत सुन्दर !

    वैसे यह तीन पंक्तियाँ
    "धूल धूसरित
    पहचानहीन
    चुप ! "
    न भी होती तो भी कविता अपनी बात कह रही है जैसे कही जानी चाहिए ...
    ज्वार आया
    और चला गया !
    फिर एक बार
    छला गया मैं
    (मेरी टिप्पणियों को गंभीरता से न लेना ... यह तो मेरे चटखारे हैं स्वाद के)

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  3. सुंदर बिम्ब ! आर्जव आप भाग्यशाली हैं की श्याम जी ने आपको आशीर्वाद दे दिया ! वैसे समन्दर उनका प्रिय बिम्ब है ! वास्तव में आप यही कहना चाहते है,की छला गया ! लिखते रहिये ! शुभ कामनाएं !

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  4. अभिषेक जी!
    स्तब्धता की
    नीरवता की
    विश्रान्ति की
    एवं एक पृथक् अनुभूति की
    यही भाषा होती है।

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  5. चुप की आवाज सुनने की यही प्रक्रिया है शायद
    बहुत खूब

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