Sunday, February 15, 2009

किर्र ..किर्र.....किर्र..किर्र


किर्र ..किर्र.....किर्र..किर्र
लकड़ी के दरवाजे में नहीं
देह में
सुनो
कान लगाकर
अपनी सांस . .....
समय का घुन
अनवरत चर रहा है
तुम्हें.......

5 comments:

  1. बहुत गूढ़ बातें लिख रहे हो, बधाई!

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    गुलाबी कोंपलें

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  2. बड़ा गहरा लिख गये.

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  3. प्रिय अभिषेक,
    कार्यवश २-३ दिनों तक कंप्यूटर से दूर रहा.
    अभी तुम्हारी तीनो ही पोस्ट पढा
    डायरी का एक पन्ना पढ़कर मैं लंका से अस्सी तक घूम आया.
    क्षणिकाएं बेहद सुंदर लगीं.
    और यह कविता सदा की ही तरह भावों की उत्कृष्टता दर्शाती है.
    सस्नेह

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