Sunday, May 23, 2010

दूब


बिना जिल्द की

वह फटी पुरानी कापी,

अपनी सब किताब की

ढेरी से मैं अलग रखा करता हूं

जिस पर बीच बीच में थककर

मैं कुछ नया लिखा करता हूं ।



वैसे तो पढ़ने की इस मेज पर

हैं बहुत कापियां

जिस पर मैं धरती और नक्षत्र

लिखा करता हूं


लेकिन दबी किनारे सबसे नीचे

बीते वर्ष की बची पन्नों वाली पर,

भीतर बढ़ती हरी दूब की

कचनारी कोंपले लिखा करता हूं ।


बिना जिल्द की

वह फटी पुरानी कापी,

अपनी सब किताब की

ढेरी से मैं अलग रखा करता हूं !

4 comments:

  1. लेकिन दबी किनारे सबसे नीचे
    बीते वर्ष की बची पन्नों वाली पर,
    भीतर बढ़ती हरी दूभ की
    कचनारी कोंपले लिखा करता हूं ।

    बहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति !

    वैसे क्या "दूब" को "दूभ" भी लिखा जाता है ? या फिर इसे "तद्भव" की तरह प्रयोग किया है ?

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  2. 'दूब' पर हम और हिमांशु भाई बतिया रहे थे कुछ समय पहले !
    अच्छा लगा आपकी यह कविता पढ़कर !
    कभी संयोग बनेगा तो इसी हरी दूब वाली कोपी को पढ़ना चाहूँगा !
    पिछली टीप में मैंने हरेपन का आग्रह किया है , यहाँ कुछ आश्वस्त सा हूँ ! आभार !

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