तुम्हारे शब्दों में
कुछ फूल हॊते हैं !
उन्हें छूकर
मैं जाग जाता हूं !
जगाओगे नहीं मुझे ?
निष्ठुर !
तुम्हारी चहकन में
कुछ रंग होते हैं !
उनके परस से मैं
बहक जाता हूं !
बहकाओगे नहीं मुझॆ ?
पाथर !
इन रंग और शब्दों से
मेरी सांस बनती है !
आंखॊं में चमक पिघलती है
और
बातॊं में खनक फटकती है ! !
लेकिन तुम .......
चुप हो अब भी ?
कुछ तो कहो
निर्मोही !
इन रंग और शब्दों से
ReplyDeleteमेरी सांस बनती है !
श्वासों और प्रश्वासों के बीच एक स्थिति और बनती है वह ठहराव है श्वासों का. श्वासों को ठहर कर कुछ पल श्वास तो लेने दें फिर ये रंग और शब्द छा जायेंगे.
लाजवाब रचना
आपकी कविताओं का सदैव ही नया शिल्प ,नया कलेवर और नया तेवर होता है -आनन्द आ जाता है ! यह सृजन अबाध चलता रहे ...यही कामना है !
ReplyDeleteअमाँ, ई बँसवारी लोड होने में समय लेती है। तीसरी बार में टिपियाने में सफल हो रहा हूँ।
ReplyDeleteपाथर तक कविता नं 1 होनी चाहिए उसके बाद कविता नं. 2। होता है होता है। ऐसा ही कुछ हुआ मेरी कल की कविता पर जिस पर आप सिर्फ 'पढ़ा' लिख कर चले आए हैं। अमाँ इत्ता खराब भी हम नहीं रचते। कल को कोई आप की तर्ज पर 'नहीं पढ़ा' लिख कर चला आएगा। हद हो गई मौज की ;)
..ई निर्मोहिया को भी बिलागर बनाय दो।
चसका लग जाएगा तो पोस्ट पर पोस्ट ... चुप रहने की शिकायत का समूल नाश :)
बहुत बढ़िया रचना!
ReplyDeletebahut khoob..
ReplyDeleteChup rehne main hi bhalai hai !
ReplyDeleteLog samajhte kahan hain?
Bolne ka koi laabh hai?
Nirmohi hona .....jeevit rehte ,moksha ko paa jaane ke samaan hai.
गिरिजेश भईया से सीखो ! एक कविता दो कैसे बनती है !
ReplyDeleteबेहतर !
वाह!
ReplyDelete..बधाई.
अहा ! कितना सुन्दर !
ReplyDeleteकितनी सारगर्भित कविता !
सच है कि यह बँसवारी लोड होने 'बाँस' हो जाता है !
ReplyDeleteऔर मैं कविता का 'निर्मोही' भी नहीं ! इसलिए भाई सुभीता करना !
लेकिन बाँस की हरेरी बनाये रखना !
कविता सुन्दर है ! 'पढ़ा' - :)
हाँ , पिछली कविता पर मैंने कोई कटाक्ष नहीं किया था ! ' दो मिनट
की भेंट' में भी कोई कटाक्ष करता है !
आभार !
बहुत बढिया..
ReplyDeleteबहुत खूब- निर्मोही।
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