व्यक्ति पर एक निजी व्यक्ति के रूप में और व्यक्ति पर एक समूह के अवयव के रूप में, मानसिक/आत्मिक विकास के जो नियम लगते हैं वे सामान्यतः बहुत अलग व कभी कभी एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत होते हैं. मोटे अर्थों में एक उदाहरण दिया जा सकता है. जीवन के शुरुआती समय में , या बाद में भी, ठीक से पढ लिख पाने, मन मस्तिष्क ठीक से विकसित हो इसके लिये आवश्यक क्रिया-कलापों में खुद को झोंक देने के लिए व्यक्ति को थोड़ा सा "स्वार्थी या आत्म केन्द्रित"होना जरूरी है. ऐसा न होने पर आदमी बलेल्ला बन बाद में देश दुनिया का नुकसान ही करता है.
किन्तु, इसके ठीक विपरीत, विस्तृत फलक पर सामाजिक जीवन में हम यह नहीं कह सकते कि एक व्यक्ति का किसी भी रूप में आत्मकेन्द्रित या स्वार्थी होना ठीक है. एक समूह को सहकारिता, आपसी सौहार्द्र के मूल्यों पर ही काम करना है. नहीं तो वह पतित हो जायेगा.
यहां सीधा विरोधाभास है. यह विरोधाभास महत्वपूर्ण है.बहुत सारे सामाजिक सुधार के आन्दोलन, आध्यात्मिक मिशन इसीलिए असफल हो जाते है क्योंकि वे इस विरोधभास को हल नहीं करते. व्यक्ति एक इकाई के तौर पर अपनी निजता में जिन मूल्यों, प्रक्रियाओं, धारणाओं के आधार पर अपने को अपने से, अपने को ईश्वर से, अपने काम व कला से, अपने को समाज से जोड़ता है वे ही मूल्य, प्रक्रियाएं, धारणाएं जरूरी नहीं की उसके समाज में व्यव्हृत किये जाने वाले आदर्शों के रूप में स्थापित हों. अथवा इसका उल्टा. वे दोंनॊ बिल्कुल अलग व यदा कदा विरोधाभासी भी हो सकतीं हैं.
”संसार माया है’’, एक मुमुक्षू अगर निजी तौर पर यह माने, जाने तो यह उसकी उपल्ब्धि है. लेकिन अगर पूरा समाज ही बिना किसी वास्त्विक बोध के एक नियम के तौर पर यह मानने लगे और इस आधार पर अपने ढ़ाचे खड़े करे तो अन्य समूहों की तुलना में वह एक आलसी, कमजोर व पिछड़ा हुआ समाज होगा. क्योंकि अगर सब माया ही है तो क्यॊं बेवजह टॆंशन लेना.
आध्यात्मिक विकास के लिये सन्तों साधकों ने ऐसी ही कई अन्य बातों पर जोर दिया है. जैसे ”तर्क करना छॊड़ दो, विश्वास सीखो,” आदि आदि. यह काम एक साधक या साधकॊं का एक समूह करे तो ठीक, लेकिन यही बात अगर पूरे समाज को एक नियम के तौर पर सिखा दी जाय, तो उस समाज का आधुनिक ज्ञान विज्ञान में पिछड़ना तय है क्यॊकिं बुध्दि-विलास तर्क वितर्क के बिना विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति असंभव है. ्कहीं हमारे साथ कुछ ऐसा ही तो नहीं हुआ है ?
विचारोत्तेजक। ब्रेव न्यू वर्ल्ड के लेखक आल्डुअस हक्सले जब बनारस आये और ग्रहण के वक्त लाखों लोगों को गंगा में डुबकी लगाते देखा तो यही भाव मन में आये। उन्होंने लिखा कि भारतीय समाज दिशाहीन हो चला है - जीवन की कड़वी सच्चाइयों से भागकर वह एक ऐसी वायवीय सत्ता समर्पित है जिसका वस्तुतः कोई वजूद नहीं है। आप और हम दोनों बनारस से हैं। ऐसी अभिव्यक्ति हमसे भी स्वाभाविक ही है। मगर हम कुछ कर सकते हैं क्या?
ReplyDeleteपुराने दिनों की तरह सबसे पहले और सबसे विस्तृत टिप्पणी के लिए धन्यवाद! ब्लाग पर अब कहाँ कोई आता है , आप आए, अच्छा लगा ।
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विषय पर आते हैं। मैंने जो लिखा है वह सब अभी मैं खुद सोच-समझ-जान रहा हूँ , अनुभव कर रहा हूँ। किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया हूँ। उसमें समय लगेगा । इसलिए क्या करना है, यह नहीं पता।
समस्या ये है कि मैं देख रहा हूँ कि आध्यात्मिक विकास के लिए जो नियम क़ायदे प्रक्रियाएँ आवश्यक हैं उन्हें सामाजिक जीवन में एक समुदाय के तौर पर अपनी व्यवस्थाओं का हिस्सा बनाने के कारण हम समाज-जीवन के हर अंग में पिछड़े हुए हैं । साहित्य हो, ज्ञान विज्ञान हो, भू-विज्ञान से लेकर अन्तरिक्ष विज्ञान तकनीक तक हो, सबमें हम पिछलग्गू हैं। ऐसा नहीं कि बिल्कुल ग़ायब हैं, लेकिन श्रेष्ठ नहीं हैं। (जो कि होना ही चाहिए था । )
इतिहास में, विगत हज़ार सालों में जो आया, हमारे समाज को घुटनों पर लाकर हम पर शासन किया। कारण चाहे भले ही बहुत सारे, ओपेन-इण्डेड, तात्कालिक, सामाजिक या जो भी रहें हों, यथार्थ यहीं है जिसे हम लीप पोत तो सकते हैं लेकिन बदल नहीं सकते।
इस संदर्भ में मुझे लगता है कि इन चीजों के होने का एक मुख्य कारण आध्यात्मिक जीवन के अनुभवों को धर्म के अतिरंजित कर्मकाण्डी स्वरूप में सामान्य सामाजिक जीवन पर थोप देना है । इस पक्ष की कटु आलोचना करना मैं सही समझता हूँ ।
अब दूसरा पक्ष।
ऊपर जिस विचार-पंक्ति पर मैं सोच रहा हूँ उसके आधार पर एक सरल निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है । वे निष्कर्ष वही हैं जो एक ठीक ठाक वामपंथी विचारक ( पुरुषोत्तम अग्रवाल के लेवल के,लोकल वाले नहीं :) के होते हैं । जैसे परंपरा में जो कुछ है सब बेकार है । वेद , उपनिषद सब शोषण के मैन्युअल है । उनकी बहुत सी बातों से सहमत होते हुए भी मैं ऐसा नहीं कर पा रहा ।
ऐसा नहीं कर पा रहा , इसका कारण यह है कि अपने धर्म , आर्ष ग्रन्थों, कुछ सन्तों से जुड़े हुए मेरे व्यक्तिगत अनुभव/बोध, ध्यान के अनुभव बताते हैं कि उन परंपराओं, प्रतीकों, रिचुअल्स में कुछ ऐसा है जो आपको परा-लौकिक ज्ञान मार्ग पर ले जाने कि क्षमता रखता है, अगर व्यक्तिगत निष्ठा , आकांक्षा , अभ्यास हो।
अब यहीं समस्या आ रही है । एक उदाहरण देता हूँ । मांस भक्षण । आधुनिक मूल्यों के आधार पर हर किसी को अपनी खाद्य प्राथमिकताएँ तय करने का हक़ है । जानवरों को प्रति हिंसा नहीं होना चाहिए लेकिन अगर कोई मांस खा रहा है तो उसे अच्छे या बुरे में विभाजित करना अनावश्यक रूढ़िवादिता है । विज्ञान भी यह कहता है कि सामान्य मांस भक्षण स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है। मान लिया।
लेकिन । लेकिन । लेकिन। महर्षि रमण , भगवान अरविन्द, श्री रजनीश, जिद्दू कृष्ण, बाबा करोली, या ऐसे तमाम सन्त विचारक हैं जिन्होंने एक स्वर में मांस भक्षण को आध्यात्मिक प्रगति के लिए बाधक बताया है । मेरा स्वयं का अनुभव है कि मांस से शरीर में भूमि तत्व बढ़ जाता हैं जिससे चेतना शिथिल हो जाती है और “स्टोनिंग” ( ध्यान में एक खतरनाक अनुभव) जैसी चीजों से गुजरना पड़ता है।
अब ऐसे में क्या हो ?
पूरे विश्व ने , खासकर पश्चिम ने बहुत कुछ किया, लेकिन कुछ एक उदाहरणों को छोड़कर, एक भी सिध्द सन्त कहीं और नहीं हुआ। सब भारत में हुए ।
तो मांस भक्षण को मैं क्या मानूँ? व्यक्तिगत तौर मैं इसके ख़िलाफ़ हूँ । सामाजिक जीवन में मैं इसके ख़िलाफ़ नहीं हूँ ।
यह बस एक उदाहरण है । कई ऐसे अन्य मुद्द है।