Monday, October 7, 2013

गैरजरूरी




जब निथरती है बूदों की लड़ी
झर झर बादलॊं की बिछावन से
तब नीचॆ खड़ा
नम धरती के 
एक छोटे से हिस्से गुथा
एक वृक्ष होता हूं मैं
बिना किसी प्रयास के
स्वयं ही अस्तित्वगत !

उषा के आश्लेष में 
रक्ताभ जुराबों से जब
फूट पड़ती हैं कुछ झिलमिल किरनें
तब बादलॊं के 
एक सफेद खरगोशी टुकड़े को
अपनी हरी देह पर जगह जगह सजाये
मोक्ष का भी मोह छोड़ चुके
किसी योगी के मन जैसी
थिर और शान्त घाटी होता हूं मैं !

अचानक जब कभी 
हवाओं की सोहबत में
भोले भाले रजत मेघ दल
भूल अपने रास्ते
घेर लेते हैं 
मेरे आस पास के सब दृश्य –---
दूर पहाड़ पर वो झोपड़ी ...
ढलान पर खड़ा वो अकेला पाइन ...
शिखर पर अटका वो चर्च का त्रिभुज ...
  सब ! ! !
तब
इस विलीन हो रहे दृश्य में
मैं
अन्ततः बचा रह गया
एक गैरजरूरी रहस्य होता हूं
स्वंय के लिये ही अबूझ
       स्वंय के लिये ही अज्ञेय !     

6 comments:

  1. भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने...

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  2. बहुत बढ़िया अभिषेक भाई .......

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  3. सचमुच अज्ञेय

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  4. बहुत गूढ़ है यह सब समझना
    लेकिन गैर जरूरी कत्तई नहीं...

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  5. बहुत सुन्दर !

    हर बिम्ब बहुत ही खुबसूरत !

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