Sunday, December 23, 2012

आज फिर



आज फिर
पहाड़ों पर हुयी होगी सांझ,
लेकिन नहीं था मैं वहां !
सांझ हर एक ,हर एक रात
सदियों का एक, एक कदम !! !

आज फिर
गहरी काही सिलवटों में उलझी
पहाड़ॊं की तलहटी में
नीली धुन्ध के फाहों की पांख लिये
बूढ़े अपरान्ह के उदास पीले परिन्दे उतरे होगें
और रात को जन्म देकर
गर्भवती सांझ सदा के लिये
आसमान से झालर की तरह लटकती
इन सारामती की चोटियों पर
कहीं सो गयी होगी !
इस तरह सदियों ने
एक कदम और चल लिया होगा !
लेकिन नहीं था मैं वहां !

हर सांझ,
शायद एक पुष्प !
और समय ,
जो इन इतिहास चबाती विशद पहाड़ियों पर
अनन्त काल से बीत रहा है
अनन्त काल तक बीतता रहेगा,
एक वृक्ष !!  !
हर रोज दिन ढले
पहाड़ियों पर आच्छन्न
समय के इस वृक्ष पर
सांझ का फूल खिलता है !
सूरज के कटोरे में
लाल केसरिया कत्थयी आदि
कई विचित्र अवर्णनीय रंग घोल
कभी स्निग्ध नीले आसमान की पंखुड़ी पर
तो कभी आक्षितिज निर्लेप विस्तृत  
समुद्री हरे रंग के सन्नाटे का बूटा जड़ी
किसी अज्ञात  प्रिय को समर्पित-सी बिछी
जंगल की दरी पर
फेंका जाता है  !
आधी हरी आधी नीली
वो चटकार जंगली चिड़िया
जिसका नाम मैं नहीं जानता
मेरी बालकनी के सामने वाले
पाईन की फुनगी पर बैठ
दूर तलक 
अपनी रस्सी जैसी बिखरने वाली हूंक से
फेकें गये रगों को 
यहां वहां सजाती है !

इस तरह 
सांझ का फूल खिलता है
रात को जन्म दे झर जाता है  !
सदियां एक कदम और चल लेती हैं
समय का वृक्ष 
थोड़ा और बड़ा हो जाता है !
लेकिन आज जब यह सब हुआ  
नहीं था मैं वहां !

11 comments:

  1. very nice poem based on reality. Good work

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  2. dude your feed address lost.. so you're loosing readers..

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  3. I hv repaired it Bhaiya , Please inform me if still it is non functional. although much readers are not expected if caring one or two like you, are there ! :)

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  4. लगता है एक परिंदा लौट आया है अपने घोंसले में.. लम्बी उड़ान के बाद और याद कर रहा है अपने क्षणिक ठहराव को!

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  5. खुबसूरत अभिवयक्ति......

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  6. वाह! बहुत सुन्दर शब्द चित्र...

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  7. अच्छा लिखते हैं आप..

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  8. अनुपम !
    आपकी हर रचना संजोकर रखने लायक है।

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  9. भौतिक उपस्थिति नहीं रही तो क्या(हर जगह रहना संभव भी नहीं),मन उस अनुभूति का भागीदार रहा !

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