Monday, January 7, 2013

खरगोश कहीं के ! ! !

हल्की नीली जीन्स पर
ब्राऊन कलर के मोन्टे कार्लॊ जैकेट में
प्योर वूलेन ऐरॊ का
टहकार काला मफलर डाले
इस साफ सर्द दुपहर में
तुम
सफेद झक झक फूलॊं की
एक पंक्ति पर झुकी हुयी
थोड़े दूर खड़े मुझ को
कुछ दिखाने की कोशिश में
बड़े खुश-से हो !
खरगोश कहीं के ! ! !
मैं देखता हूं ,
और बस देखता हूं !
शान्त , स्तब्ध .
झाग-से रंग के कोहरे की
एक हल्की परत
मेरे तुम्हारे बीच में है
और  उससे कहीं गाढ़ी
ठीक तुम्हारे पीछे  
जैसे हवा के जुलाहे ने
बिखरे इन रजत तुहिन कनों से बुनकर
झीना सा भींगा हुआ एक दरीचा
टांग दिया हो
तुम्हारे पीछे !
मैं देखता हूं ,
और बस देखता हूं !
विस्मृत, स्थिर.
खरगोश कहीं के ! ! !

5 comments:

  1. निर्मल वर्मा की अगली पीढी तैयार है अब! :-)

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    1. अब इसमें मेरी कोई गलती नहीं है , अगर निर्मल चचा ऐसे लिखते थे तो.
      ;) ;)

      वैसे आपकी बात के निहितार्थ गहन हैं. सोचूगां.

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  2. बहुत सुन्दर !
    बिम्बों का बहुत ही सुन्दरता से प्रयोग किया है।
    इस कविता को पढ़कर लगा कि मन अगर ले में हो तो सर्वत्र कविता है।

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    1. कविता हो न हो , खोजने की हल्की सी कोशिश करता हूं तो मिल ही जाती है कोई न कोई कविता, कहीं भी. ..लय , अर्थ , बिम्ब , भाषा तो हमारी सीमित मानवीय क्षमताओं के तुच्छ आग्रह है कविता के प्रति .

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  3. बहुत ही अच्‍छी रचना प्रस्‍तुत की है आपने।

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