Thursday, November 12, 2009

मै बस देखूगा !


बस,
हतप्रभ
अकिंचन मैं
देखूंगा ,
चुप ! विस्मित !

तुम हंसो ! ! !
अपनी वो
पूरी खुली
भरी और
गाढ़ी हंसी !

मेघाछ्न्न गदराये आकाश से
और न सम्हल सकी ,
उन्मुक्त,
उत्फुल्ल,
दिनों बाद
यकायक भहरायी
जोरदार
बरसात-सी
हंसी ! ! !

तुम हंसो ! !
मैं बस देखूंगा
वह मोतियों के
खूब बड़े झरने-सी
चमकीली हंसी !

7 comments:

  1. मेघाछ्न्न गदराये आकाश से
    और न सम्हल सकी ,
    उन्मुक्त,
    उत्फुल्ल,
    दिनों बाद
    यकायक भहरायी
    जोरदार
    बरसात-सी
    हंसी ! ! !
    क्या बिम्ब दिया है. बहुत ही सुन्दर

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  2. ओह देखो तो कभी-कभी शब्द, अर्थ पर भारी पड़ जाते हैं फिर भी एहसास बयाँ कर जाते हैं...

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  3. Bahut hi sundar bhavpoorn rachna...apne bade sundar bimb prayog kiye hain...

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  4. भाई आज यहां आना सार्थक रहा.इस कविता की बधाई.

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  5. चलो ठीक है ! बेहतर कविता ।

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