बस,
हतप्रभ
अकिंचन मैं
देखूंगा ,
चुप ! विस्मित !
तुम हंसो ! ! !
अपनी वो
पूरी खुली
भरी और
गाढ़ी हंसी !
मेघाछ्न्न गदराये आकाश से
और न सम्हल सकी ,
उन्मुक्त,
उत्फुल्ल,
दिनों बाद
यकायक भहरायी
जोरदार
बरसात-सी
हंसी ! ! !
तुम हंसो ! !
मैं बस देखूंगा
वह मोतियों के
खूब बड़े झरने-सी
चमकीली हंसी !
हतप्रभ
अकिंचन मैं
देखूंगा ,
चुप ! विस्मित !
तुम हंसो ! ! !
अपनी वो
पूरी खुली
भरी और
गाढ़ी हंसी !
मेघाछ्न्न गदराये आकाश से
और न सम्हल सकी ,
उन्मुक्त,
उत्फुल्ल,
दिनों बाद
यकायक भहरायी
जोरदार
बरसात-सी
हंसी ! ! !
तुम हंसो ! !
मैं बस देखूंगा
वह मोतियों के
खूब बड़े झरने-सी
चमकीली हंसी !
मेघाछ्न्न गदराये आकाश से
ReplyDeleteऔर न सम्हल सकी ,
उन्मुक्त,
उत्फुल्ल,
दिनों बाद
यकायक भहरायी
जोरदार
बरसात-सी
हंसी ! ! !
क्या बिम्ब दिया है. बहुत ही सुन्दर
ओह देखो तो कभी-कभी शब्द, अर्थ पर भारी पड़ जाते हैं फिर भी एहसास बयाँ कर जाते हैं...
ReplyDeleteBahut hi sundar bhavpoorn rachna...apne bade sundar bimb prayog kiye hain...
ReplyDeleteबेहतरीन!!
ReplyDeleteभाई आज यहां आना सार्थक रहा.इस कविता की बधाई.
ReplyDeleteचलो ठीक है ! बेहतर कविता ।
ReplyDeleteसुन्दर
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