चलो छोड़ो!
बढ़ो आगे !
न रुको !
देखो उधर !
कितनों को जरूरत है तुम्हारी !
चाहते हैं वे कि पास रहो तुम उनके
उन्हीं के बन कर , उन्हीं की चाह में बधे हुये !
थोड़ा अपने को किनारे रखो !
भूलो अपने स्वप्न
अपने वे ऊंचे अभीष्ट ।
और .........
अब तो .........
वह भी लौट चुकी है....
नेह के सब उत्स अधूरे छोड़.....
अपनी एक ऎसी दुनियां में
वापस आना जहां से
कभी सम्भव नहीं होता......!!!
तो फिर.....
अब तुममें बचा ही क्या है ! ! ! ! ! !
झूठे स्वप्न ....भुलावे में रखने वाली इच्छाओं के
अलावा !
वसन्त की इस ऋतु में ,
चहुं ओर जब घनी हरियरी छायी है
बीच में सूखे पेड़ की ठूंठ बनकर
इस तरह खड़े रहना
अच्छा नहीं लगता !
अपने को दे दो !
जाओ ! उनके बीच
टूटकर जलो ,
उनकी ऊष्णता के लिये
अपने में बची अन्तिम आग
को भी
सौंपकर
राख होवो !
(फिर ,
पूरे सन्तुष्ट
किसी किनारे जमीन पर बिखरे बिखरे
सब कुछ बस चुपचाप देखते रहना ।
कोई तुमसे कुछ नहीं कहेगा ।)
अपने को दे दो !
ReplyDeleteजाओ ! उनके बीच
टूटकर जलो ,
उनकी ऊष्णता के लिये
अपने में बची अन्तिम आग
को भी
सौंपकर
राख होवो !
बहुत सुन्दर बढ़िया भाव लगे इस के
कितनों को जरूरत है तुम्हारी !
ReplyDeleteचाहते हैं वे कि पास रहो तुम उनके
उन्हीं के बन कर , उन्हीं की चाह में बधे हुये !
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टूटकर जलो ,
उनकी ऊष्णता के लिये
अपने में बची अन्तिम आग
को भी
सौंपकर
राख होवो !
बहुत सुंदर !!!
बहुत सुन्दर भाव लिए रचना पसंद आई. नियमित लिखो.
ReplyDeleteथोड़ा अपने को किनारे रखो !
ReplyDeleteभूलो अपने स्वप्न
अपने वे ऊंचे अभीष्ट ।
और .........
अब तो .........
वह भी लौट चुकी है....
नेह के सब उत्स अधूरे छोड़.....
अपनी एक ऎसी दुनियां में
वापस आना जहां से
कभी सम्भव नहीं होता......!!!
"बहुत अधिक परिवर्तन दिखाई पड़ रहा है ."
बहुत सुंदर !!!
bahoot hi bhavpurn kavita likhi hai aapne. ise banaye rakhen.
ReplyDeletebehtareen rachnaa bahut sundar
ReplyDeletemere blog par padhar kar sukh ki paribhasha padhen swagat hai
अपने को दे दो !
ReplyDeleteजाओ ! उनके बीच
टूटकर जलो ,
उनकी ऊष्णता के लिये
अपने में बची अन्तिम आग
को भी
सौंपकर
राख होवो !
बहुत सुन्दर .....!!