प्रौढ़ जाड़े की एक सुबह --
ठण्ढ़ी
पीली
और यूं ही खुश!
बेमतलब
कहीं जाता मैं।
टांग पसारे ,
गर्दन में मुड़ा सिर टिकाये
अधखुली आंख,
मस्त काली चमकीली बकरी ।।
गोबर की कीच में,
किसी दूसरी संसृति का स्वप्न देखता सा खड़ा,
शान्त , अनवरत पगुरीरत
भैंस का भोंदू बच्चा ।।
थोड़ी ही दूर पर ,
आधे बने बेकार- से नये घर के रस्सी घिरे अहाते में
छोटे मोटॆ पौधों की हरी झाड़ के बीच ,
मोटे तने वाला , हल्का सा टेढ़ा ,
काट दिये जाने पर फिर से खूब छितर कर पनपा ,
खुद से संन्तुष्ट सैजन ॥
रास्ते पर ही ,हल्का सा किनारे
स्कूल जाने के लिये सरकारी चापाकल पर,
कक्षा सात या आठ में पढ़ने वाला
चड्डी पहनकर जल्दी जल्दी नहाता
झूठ मूठ का एक लड़का ॥
बगल में,
कचरे से आधे पट चुके आधे हरे मैदान में
किसी फेंके गये लत्ते से खेलते ,
खीचा तानी में निमग्न
कुत्ते के नये तन्दरुस्त , प्यारे पिल्ले ॥
इन सबके बीच ,
धूप की अवसन्न पीली नदी में
सूखी लकड़ी के एक छोटॆ से डण्ठल सा
किसी भी संम्भावना और किसी भी प्रतिरोध से सर्वथा रिक्त
चुपचाप बहता मैं .. . . . . .. . . . .
ठण्ढ़ी
पीली
और यूं ही खुश!
बेमतलब
कहीं जाता मैं।
टांग पसारे ,
गर्दन में मुड़ा सिर टिकाये
अधखुली आंख,
मस्त काली चमकीली बकरी ।।
गोबर की कीच में,
किसी दूसरी संसृति का स्वप्न देखता सा खड़ा,
शान्त , अनवरत पगुरीरत
भैंस का भोंदू बच्चा ।।
थोड़ी ही दूर पर ,
आधे बने बेकार- से नये घर के रस्सी घिरे अहाते में
छोटे मोटॆ पौधों की हरी झाड़ के बीच ,
मोटे तने वाला , हल्का सा टेढ़ा ,
काट दिये जाने पर फिर से खूब छितर कर पनपा ,
खुद से संन्तुष्ट सैजन ॥
रास्ते पर ही ,हल्का सा किनारे
स्कूल जाने के लिये सरकारी चापाकल पर,
कक्षा सात या आठ में पढ़ने वाला
चड्डी पहनकर जल्दी जल्दी नहाता
झूठ मूठ का एक लड़का ॥
बगल में,
कचरे से आधे पट चुके आधे हरे मैदान में
किसी फेंके गये लत्ते से खेलते ,
खीचा तानी में निमग्न
कुत्ते के नये तन्दरुस्त , प्यारे पिल्ले ॥
इन सबके बीच ,
धूप की अवसन्न पीली नदी में
सूखी लकड़ी के एक छोटॆ से डण्ठल सा
किसी भी संम्भावना और किसी भी प्रतिरोध से सर्वथा रिक्त
चुपचाप बहता मैं .. . . . . .. . . . .
बहुत बढिया शब्दचित्र पिरोया है।बहुत बढिया रचना लिखी है।बधाई स्वीकारें।
ReplyDeleteइन सबके बीच ,
धूप की अवसन्न पीली नदी में
सूखी लकड़ी के एक छोटॆ से डण्ठल सा
किसी भी संम्भावना और किसी भी प्रतिरोध से सर्वथा रिक्त
चुपचाप बहता मैं .. . . . . .. . . . .
जीवन का सार्वजनिक स्वीकार है यह. चले चलो, बहे चलो.
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना.
ReplyDeletebahut khub bhaiya........
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