तुम्हारी चुप्पी को अस्वीकार समझ, अपनी हार समझ, खुद में वापस लौट गया मैं !
ढलती सांझ -से उदास मन में पहले उगे तारे- सी धुधंली, टिमटिमाती इक अन्तिम आस लिये कि मेरे लौट जाने के बाद शून्य मन ,कुछ देर तक खड़ें रहोगे तुम , उस रिक्त पथ को निहारते ... . . जिससे लौट गया हूं मैं ! ! !
अंततः समझ नहीं ही पाए चुप्पी को . अस्तित्व यूँ ही प्रतीक्षा किया करता है निज प्रवृत्तियों का . पथ की रिक्तता, शून्य मन - दोनों साहचर्य का वैराग्य ही प्रदान करते है, और क्या ?
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteअंततः समझ नहीं ही पाए चुप्पी को .
ReplyDeleteअस्तित्व यूँ ही प्रतीक्षा किया करता है निज प्रवृत्तियों का .
पथ की रिक्तता, शून्य मन - दोनों साहचर्य का वैराग्य ही प्रदान करते है, और क्या ?
कविता प्यारी लगी, पर ऐसी तुम्हारी ?
उस रिक्त पथ को निहारते ... .
ReplyDeleteयानी उस चुप्पी में भी स्वीकार (स्विकार्योक्ति) थी.