Tuesday, December 16, 2008

तुम्हारी चुप्पी



तुम्हारी चुप्पी को
अस्वीकार समझ,
अपनी हार समझ,
खुद में वापस लौट गया मैं !

ढलती सांझ -से उदास मन में
पहले उगे तारे- सी
धुधंली, टिमटिमाती इक अन्तिम आस लिये
कि मेरे लौट जाने के बाद
शून्य मन ,कुछ देर तक खड़ें रहोगे तुम ,
उस रिक्त पथ को निहारते ... . .
जिससे लौट गया हूं मैं ! ! !

3 comments:

  1. अंततः समझ नहीं ही पाए चुप्पी को .
    अस्तित्व यूँ ही प्रतीक्षा किया करता है निज प्रवृत्तियों का .
    पथ की रिक्तता, शून्य मन - दोनों साहचर्य का वैराग्य ही प्रदान करते है, और क्या ?

    कविता प्यारी लगी, पर ऐसी तुम्हारी ?

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  2. उस रिक्त पथ को निहारते ... .

    यानी उस चुप्पी में भी स्वीकार (स्विकार्योक्ति) थी.

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