Thursday, December 18, 2008

कभी कभी ,मेरे बावजूद


कभी कभी
मुझसे ही खुद को बचाते हुये
मेरे भीतर से कुछ -
सफ़ेद -नीले धुएं के पेंड़ सा
निकल आता है . . . .

कुछ ऎसा ,
जो बिलकुल
मेरे बावजूद होता है
और
स्वायत्त होता है ! !

(फिर भी),(लोभ वश )

मैं
जलते-बुझते सुनहरे शब्दों की लड़ियां
अपने वृ॒न्तों पर सजाये
उस कल्प-वृ॒क्ष को
(बस)
सहेजता हूं ,
प्रदर्शित करता हूं
अपनी औकात भूल ,
अपने गर्व में जोड़ता हूं , , , ,

और
भरसतः
बने ही रहने देता हूं
अपने इस भरम को
कि रचना यह
मेरी है

किन्तु
वस्तुतः तो
रचता
वही है मुझे .. . . .. .
अपने आविर्भाव में भी . . .
अपने अवगाहन में भी .. . .
अपनी अभिव्यक्ति में भी .. . . ..
कभी कभी , मेरे बावजूद ! !

3 comments:

  1. your link is given in chitthaa charchaa. please visit and enjoy.

    Link of ChiTtha Charcha:
    http://chitthacharcha.blogspot.com

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  2. @उसके पीछे के भाव प्रिय बनाते हैं।


    हाँ, पर भाषा भी पाडित्यपूर्ण है......

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