Friday, March 23, 2018

अपाहिज लोकतन्त्र


यह देखकर आश्चर्य मिश्रित दुख होता है कि अनेक अच्छे खासे पढ़े लिखे तथाकथितवेल टू डूसज्जन भी  राजनीति से सम्बन्धित अभिव्यक्तियों में अच्छे बुरे का भेद किये बिना, मुद्दे को गहरायी से समझे बिना, अतार्किक रूप से तथ्यों को अनदेखा करते हुयेहार्ड पार्टी लाईनअपनाये दिखते हैं। खासकर तब जब उनका किसी राजनीतिक गतिविधि से कोई सीधा सम्बन्ध दिखता हो जिसमें यह मजबूरी हो कि अमुक माननीय मेरे तार्किक विकल्प चयन से नाराज हो जायेगें ! फिर भी इन सज्जनों का हर मुद्दे पर हार्ड पार्टी लाईन पर बने रहना मेरे मन में इनकी शिक्षा दीक्षा, इनके मानसिक स्वास्थ्य पर संदेह ऊपजाता है. ऐसे सज्जन हमारे आसपास बहुतायत मात्रा में बिखरे पड़े हैं. इनमें से कई अधिकारी, डाक्टर, अभियन्ता, एनआरआई इत्यादि है. आश्चर्यजनक रूप से कई प्रोफेसर और लेखक भी हैं जिनके प्रति व्यक्तिगत रूप से कई विनम्र लोग अकारण ही पर्याप्त श्रध्दा रखते हैं/थे.

हाल फिलहाल में अन्ना हज़ारे की फेसबुक पर चल रही जूतम पैजार (ट्रोलिंग)  देखकर मेरे मन में यह खयाल आया. मात्र चार पांच साल पहले हर वह व्यक्ति जो अपने देश-समाज के प्रति शुभेच्छा रखता था वह इस बात से सहमत था कि भ्रष्टाचार हमारी व्यवस्था के लिए नासूर है और एक मजबूत लोकपाल इसे रोकने की दिशा में एक प्रभावी कदम हो सकता है. लेकिन आज जब उसी अन्ना ने दुबारा उसी मुद्दे पर अनशन शुरु किया है तो उनके खिलाफ अपशब्दों, भद्दे चुटकुलों की बाढ़ गयी है. और फ़ेसबुक पर बात बात में ज्ञा झोकनें वाला, एक पढा लिखा आदमी भी इस भद्देपन का हिस्सा है. ऐसी परिस्थिति को कैसे समझा जाय ?
लोकपाल का औचित्य क्या है, उसकी सार्थकता कितनी होगी यह अलग बहस का मुद्दा है. लेकिन यह जो भद्र वर्ग उनकी ट्रोलिंग में लगा हुआ है उसे समझना जरूरी है. एक बात तो बिना किसी विश्लेषण के स्पष्ट हो जाती है कि यह जो वर्ग है इसका राजनैतिक चयन सूचना, संज्ञा, विश्लेषण पर आधारित होकर कुछ अन्य चीजों पर आधारित है. प्रश्न है कि वह अन्य चीजें क्या है?
वे इतिहाकार (“वामी, कामी, सिक-लर” ??) जो १८५७ की क्रान्ति को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम नहीं मानते वे तर्क देतें है कि जिन लोगों ने क्रान्ति में हिस्सा लिया वे किसी उभय उद्देश्य अर्थातअपने राष्ट्र की स्वतंत्रता, गरिमाइत्यादि के लिए नहीं बल्कि अपनी पुरानीप्राईमार्डियल एथिनिकपहचान बचाने के लिए लड़ रहे थे. वे अपने समुदाय के दबदबे, अपनी जागीर, अपनी रीतियों-कुरीतियों को बचाये रखने के लिए लड़ रहे थे. उनके मन में एक राष्ट्र में रह रहे प्रत्येक आमजन के हित की कामना नहीं थी. एकता, बन्धुत्व जैसी भावनाएं नहीं थी.

हालाकिं व्यक्तिगत तौर पर मैं इस तर्क से पूरी तरह सहमत नहीं हूं. लेकिन इस तर्क-प्रविधि का उपयोग हम वर्तमान समस्या के उपलक्ष्य में करें तो बोधगम्य परिणाम दृष्टिगोचर होते है. यह जो वर्ग है, ……और हां, वह समूह भी जो हर मुद्दे पर दूसरीपार्टी लाइनपर डटा हुआ है वह भी, अपने देश, अपने देश के लोकतंत्र के लिए नहीं बल्कि अपने समूह के अल्पकालिक न्यस्त हितों अपनी जागीर को बचाने बचानें में लगा हुआ है. ये लोग कहें चाहे भले कुछ भी, और कितना ही भगत सिंह का जन्मदिन मना लें, इनके हृदय के भीतरी तलों में इनका समुदाय, इनकी जागीर ही इनके लिये पूज्य हैं, वृहदतर अर्थों में, आधुनिक अर्थों में,  देश की, देश की हित संकल्पना, उसके लिए प्रतिबध्दता इनकी सामूहिक कल्पना का हिस्सा नहीं है. इनके लिए राष्ट्र्हित-हित एक झुनझुना (नैरेटिव) है जिसे अपने छुपे हुये संकुचित हितों को साधते रहने के लिए बजाना होता है.

हांलाकि इसमें पूरी तरह इनका दोष भी नहीं कहा जा सकता. इनकी शिक्षा दीक्षा में ही खामी रह गयी है. देश की शिक्षा व्यवस्था ने इन्हें डाक्टर, इन्जीनियर, शिक्षक, वकील, लेखक, पत्रकार, बाबू, प्रोपागण्डिस्ट आदि के रुप में प्रशिक्षित कर कुशल कामगार तो बना दिया लेकिन अपने आसपास के समाज के सतत परिवर्तनशील यथार्थ को, जो कि संस्कृति और विज्ञा की नवनवोन्मेशालिनी गवेषणाओं से लगातार परिमार्जित, प्रकल्पित हो रहा है उसे समझना कैसे है, यह नहीं सिखाया.
आज हमारे देश में इस ना समझगी का सबसे ब़ड़ा खामियाजा हमारा लोकतन्त्र भुगत रहा है. अपाहिज लोकतन्त्र. 

1 comment:

  1. लिखा तो झक्कास है मगर तनिक अन्ना की वैचारिक वंशबेलि के विषफलों पर नज़र डालेंगे तो उनकी वर्तमान उपेक्षा का औचित्य समझ में आ जायेगा।

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