वैसे यह तीन पंक्तियाँ "धूल धूसरित पहचानहीन चुप ! " न भी होती तो भी कविता अपनी बात कह रही है जैसे कही जानी चाहिए ... ज्वार आया और चला गया ! फिर एक बार छला गया मैं (मेरी टिप्पणियों को गंभीरता से न लेना ... यह तो मेरे चटखारे हैं स्वाद के)
सुंदर बिम्ब ! आर्जव आप भाग्यशाली हैं की श्याम जी ने आपको आशीर्वाद दे दिया ! वैसे समन्दर उनका प्रिय बिम्ब है ! वास्तव में आप यही कहना चाहते है,की छला गया ! लिखते रहिये ! शुभ कामनाएं !
पढ़कर एक शब्द सहसा कौंधा -श्लथ -सस्नेह समर्पित !
ReplyDeleteक्या बात है आर्जव ! बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteवैसे यह तीन पंक्तियाँ
"धूल धूसरित
पहचानहीन
चुप ! "
न भी होती तो भी कविता अपनी बात कह रही है जैसे कही जानी चाहिए ...
ज्वार आया
और चला गया !
फिर एक बार
छला गया मैं
(मेरी टिप्पणियों को गंभीरता से न लेना ... यह तो मेरे चटखारे हैं स्वाद के)
..बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteसुंदर बिम्ब ! आर्जव आप भाग्यशाली हैं की श्याम जी ने आपको आशीर्वाद दे दिया ! वैसे समन्दर उनका प्रिय बिम्ब है ! वास्तव में आप यही कहना चाहते है,की छला गया ! लिखते रहिये ! शुभ कामनाएं !
ReplyDeleteअभिषेक जी!
ReplyDeleteस्तब्धता की
नीरवता की
विश्रान्ति की
एवं एक पृथक् अनुभूति की
यही भाषा होती है।
चुप की आवाज सुनने की यही प्रक्रिया है शायद
ReplyDeleteबहुत खूब