देह तो बाद में मरती है ।
अक्सर
मन बहुत पहले ही मर जाता है ।
धीरे धीरे सड़ती लाश
बची रहती है ।
लोग कहते हैं “पहुंचा हुआ” ।
दरसल ,
बहुत सारे विचार, वाद और सोच के ढ़ंग
जगह जगह खुली कब्र की तरह बिछे रहते हैं ।
स्वछंद विचरते अनेक सुन्दर मन
बकरी के मेमनों की तरह उनमें गिरते हैं ।
वापस निकल नहीं पाते हैं ।
दफ्न हो जाते हैं ।
मर जाते हैं ।
सड़ जाते हैं ।
दूर दूर तक दुर्गन्ध फैलती है ।
लोग कहते हैं यश है ।
अक्सर
मन बहुत पहले ही मर जाता है ।
धीरे धीरे सड़ती लाश
बची रहती है ।
लोग कहते हैं “पहुंचा हुआ” ।
दरसल ,
बहुत सारे विचार, वाद और सोच के ढ़ंग
जगह जगह खुली कब्र की तरह बिछे रहते हैं ।
स्वछंद विचरते अनेक सुन्दर मन
बकरी के मेमनों की तरह उनमें गिरते हैं ।
वापस निकल नहीं पाते हैं ।
दफ्न हो जाते हैं ।
मर जाते हैं ।
सड़ जाते हैं ।
दूर दूर तक दुर्गन्ध फैलती है ।
लोग कहते हैं यश है ।
मन बहुत पहले ही मर जाता है ।
ReplyDeleteऊधौ मन नाही दस-बीस.
बहुत अच्छी कविता है.
नज़रिया हट कर है...........अच्छा लगा।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना ...
ReplyDeleteसोच लम्बी है, दूर तक. रूपक भी अच्छे हैं.
ReplyDeleteकविता तो अच्छी है ही .
अद्भुत सोच !!!!
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता !!!
स्वछंद विचरते अनेक सुन्दर मन
ReplyDeleteबकरी के मेमनों की तरह उनमें गिरते हैं ।
..........
दूर दूर तक दुर्गन्ध फैलती है ।
लोग कहते हैं यश है ।
...
आज आपको पहली बार पढ़ा...
बेहद सशक्त और प्रभावशाली लेखन...
इस उर्जा को बरकरार रखें !
उम्मीदों के साथ...
शुभकामनाएं.
अजन्ता
बहूत गहरा और सूक्ष्म चिंतन है.......
ReplyDeleteलाजवाब लिखा है
अलग सोच की लगी यह कविता अच्छी है ..
ReplyDeleteअच्छा है. मन बार बार मरता है जीता है लेकिन शरीर केवल एक बार !
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