Saturday, October 25, 2008

कला


कला एक
विवशता है.

मैं जानता हूँ कुछ शब्द
कुछ संरचनाएं
भावों की छोटी-सी उपज है मेरे पास
मैं, छटपटाता , बंद , इन्हीं शब्दों ,संरचनाओं के
लघु दायरों में अनवरत !


जब जब कोई नया उगा भाव
एक दंश मारता ,
कराहता मैं दर्द से
लतफत भागता हूँ इधर उधर
उफनता सिमटता ,
व्यथा की अन्तिम उठान तक ,
वेदना की हूक के अन्तिम श्रृंग तक
चेतना के लघु वातायनों में
विवश तजबीजता स्वातंत्र्य के नव उत्स ……


किंतु
अवश् परवश
गिडगिडाता
अंतत: जाता हूँ शरण
इन लुच्चे और छोटे शब्दों की
की दहकते स्वत्व में सांत्वना के कुछ फूल रोपूं........

वे सत्य गिरवी रख मेरा,
रीझ मेरी क्वारी वेदना के सौंदर्य पर,
मुझे अभिव्यक्ति देते हैं …….

और तब
मैं ख़ुद से बहुत दूर……
एक प्रतीयमान सत्य हो जाता हूँ
….एक आभास…एक धोखा ,विवश ! !

जैसे भुट्टे के खेत में
चिडियों को भगाने के लिए बिजूका……

1 comment:

  1. वे सत्य गिरवी रख मेरा,
    रीझ मेरी क्वारी वेदना के सौंदर्य पर,
    मुझे अभिव्यक्ति देते हैं …….

    edit these lines and give these lines a prolific value.

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