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बरसात जब होती है
सड़कें गलियां मिट्टी
सब भींग जाते हैं.
हर तरफ हर चीज नम
घिरे बादल ठण्डी हवायें
सब शान्त होता है.
मन ऐसे में भूल जाता है
समय के अनुशासन
स्मृति के तारतम्य ,
पुरानी बरसातों की
तमाम यादें
कर देता है घालमेल.
लगता है अचानक
कि अरे ये वही बरसात है
जिसने बचपन में
स्कूल के कमरे में
भर दिया था पानी
फिर गणित के अध्यापक ने कहा था
बाकी कल !
मन में फूट पड़े थे हुलास के
विकल झरने.
भान होता है
यही पानी की छीटें
करती थी घोषणा
कि कच्चे हरे आम
अब रसीले पीले होगें
और व्यग्र बालक कोई
स्मृतियों में
कर रहा होगा घर में
आम की पहली खेप के लिए फसाद
!
बरसात जब होती है
मन की परतों में वह गांव
जहां सारी पगडंडियां मिट्टी थी
नम हो ऊपर सरक आता है.
तरबतर हुयी मड़ई से
टपकता मटमैला पानी,
अपने मटमैलेपन में भी
एकदम साफ पानी
जमीन पर नीचे जो गढ्ढे बनाता
था
उसकी सीधी रेखा का रहस्य
उनकी एक सी गहराई
आज भी विस्मित करते हैं.
शाम की लालटेन के
टिमटिमाते पीले उजास में
मढ़राते ढेर सारे भुनगे-पतंगों
साथ
आग में भूनी भींगी मटर
पीसे मिर्चे साथ खिलाने वाले
वो बूढे बाबा न जाने कब के
खत्म हो गये !
बरसात जब होती है
फिर से पास आकर
इस तरह किसी बरसाती सांझ
मुझे अकेले पाकर
बहुत दूर के किसी अनजाने गांव
में
घटा कोई रहस्यमयी किस्सा सुनाते
है.
अब भी, बरसात जब होती है.
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