मैं डरता हूं
वह कवि होने से
जो अपने ही बिम्बों की फफूंद में
भटक जायेगा.
जो खुद को
अपने कहे अर्थों का
जिम्मेदार मानेगा.
जिसे विश्वास हो चला है भाषा में
शब्दों पर,
उनके पुराने अर्थों में, पूरा.
जो कविता को लेकर
जाना चाहता है
एक स्थान से
दूसरे स्थान पर.
मैं डरता हूं
जब शब्दों में विश्वास है तो डरना क्या।
ReplyDelete