Tuesday, March 31, 2020

लाकडाउन कथा: प्राग्माटिज्म !


वीरान सड़कें. दिल्ली गुड़गाव रोड
आज चार दिन हो गये सब कुछ बन्द हुये. लाकडाउन. सब कुछ बन्द. दुकानें बन्द, कार्यालय बन्द, लोग बन्द. सड़के सूनी है. बाजार वीरान हैं. बाहर निकलने पर पुलिस आप पर लाठियां बरसा सकती है. यह कोरोना नामक विषाणु का प्रकोप है. वायरस शब्द में वह फ़ील नहीं आता जो विषाणु शब्द दे जाता है. इसलिये वायरस नहीं लिखा. आज विश्व के लगभग 199 देश इस महामारी को अनुभव कर रहे है. हजारों लोग मर चुके हैं, लाखों संक्रमित है.

अभी शाम का समय है. मैं कुछ काम की चीजें लेने बाहर गया था. सर्जिकल दस्ताने व मास्क तो पहनना जरुरी है सबको. सब पहन भी रहे हैं. दो तीन वर्ष पहले मैं अकेले मास्क पहन के घूमता था. अब सब साथ हैं.  अच्छा लगता है. दुकानें सुबह दो घण्टे के लिए और शाम को दो घण्टे के लिए खुलती हैं. सारी दुकानें नहीं. सब्जी, दवा व प्रोविजन स्टोर्स. ठेले पर सब्जी वाले भी मौजूद रहते हैं. दिन भर वीरान पड़ी गलियों में शाम को थोड़ी सी चहल पहल दिखायी देती है. लेकिन ज्यादा नहीं. बीस पच्चीस मिनट के अन्तराल पर पुलिस की लारी दिख जाती है. वे सबको दूर दूर खड़े होने व मास्क पहनने के लिए कहते हुये चले जाते है, अगर उन्हें कहीं रुक कर कोई विशॆष निर्देष देने की आवश्यकता नहीं महसूस होती है तो. 
दक्षिण पश्चिम दिल्ली का एक हिस्सा.
सामान लेने के लिय पंक्ति में खड़े लोग.

वैसे जहां मैं रहता हूं यह गूजरों की लोकलिटी है तो पुलिस वालॊं की धौंस भी, अगर कभी दिखानें पड़े तो, न चाहते हुये भी, आईपीसी के सभी नियमॊं का पालन करते हुये भी थॊड़ी सी सेलेक्टिव होती है. कल ही शाम को चार पांच लड़के गली के मुहाने पर, जो कि मुख्य सड़क पर खुलती है, खड़े थे. कांस्टेबल भाई उतरे, और एक बिहारी सब्जी वाले के आसपास खड़े लोगों को निर्देश देकर चले गये. वो भी क्या कर सकते थे.  प्राग्माटिज्म एक ऐसा सिध्दांत है जो सभी विचारधाराओं, दर्शनों का पापा है. इसके बिना कोई भी विचार, सिध्दान्त पंगु है.  

मैं शाम को सब्जी लेने निकला था. वैसे मेरा हरी सब्जियों में बिल्कुल विश्वास नहीं है. सब केमिकल खा पी के बड़ी होती हैं, फलती फूलती हैं. बिना मेलाथ्यान के आप बालकनी में मिर्च तक नहीं उगा सकते. यह मैंने हाल फिलहाल में करके देखा. रायानिक जहर, जिसका बीस ग्राम भी सीधे आपके अन्दर चला जाय तो आपकी आत्मा का नेक्ट सायकल रेडी. लेकिन ये सब भी सब्जियों के माध्यम से डायल्यूट करके हम थोड़ा थोड़ा खा लेते हैं. प्राग्माटिज्म !

जहां मैं हमेशा सब्जी लेता हूं वह "ज्वाइंट" आज बन्द था, पास लगे एक ठेले वाले के पास चला गया. वह सब्जियां देने के साथ साथ आसपास खड़े लोगों को बड़ी ही गर्मजोशी से यह बता रहा था कि अपने पचास साल के जीवन में उसने ऐसा कर्फ़्यू नहीं देखा. जब इन्दिरा गांधी नहीं रही थी तब भी वह यही था. लेकिन ऐसा बन्द उसने नहीं देखा. इसके बाद उसने यह भी बताया की यह कलयुग की महामारी है. उसके गुरु जी जो अब नहीं रहे उन्होंने तीन साल पहले ही यह बता दिया था कि ऐसा होगा. उसने बड़ी ही गम्भीरता से बताया कि यह महामारी औरतों के कारण आयी है. औरतें अब धर्म का पालन नहीं करतीं, इसलिए ऐसा हो रहा है. वह दर्शन प्रतिपादन में और आगे बढ़ रहा था और कुछ अकथनीय बातें कहना शुरु कर रहा था कि मैं वहां से चल दिया. प्राग्माटिज्म !





5 comments:

  1. यथार्थ... और इस यथार्थ में बहुत सारी बातें अपनी गंभीरता के साथ संकेतिकत है-महामारी के डर से खाली पड़ी सड़कें, कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग, धर्म की स्वयंभू व्याख्या... बहुत कुछ

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  2. आँखोदेखी कहता हुआ एक बेहतर गद्य। पूरी कसावट में कुछ कमी लग रही है खासकर दूसरे और तीसरे अन्विति के मध्य- कुछ छूटा छूटा से लग रहा है। "यह महामारी औरतों के कारण आई है" - पितृसत्ता कितने गहरे बैठा हुआ है, हम सब में- आम से खास तक सबके भीतर, जिस वाक्य को कहते और सुनते ग्लानि और अपराधबोध होना चाहिये वह सब कितना सहज सुगम तरीके से कहा और सुना जा रहा है। हम बहुत कुछ बदले हैं पर कितना कुछ नहीं बदले हैं.. यह बता रहा है गद्य! सब्जी वाले की बात को उसी के शब्दों में लिखा जाता तो और बेहतर व स्वाभाविक लगता।
    बेहतर लिख रहे हैं आप
    क्रम जारी रहे
    लोकडाउन समाप्त होने तक पूरा गद्य सामने हो
    इस उम्मीद के साथ

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  3. प्रोत्साहन के लिए शुक्रिया. आपको इसीलिए जबरदस्ती बुलाया कि आप चेक करते रहें और सही गलत बताते रहें. यह सबसे जरूरी प्रक्रिया है.

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  4. अरे नहीं
    सही गलत नहीं साथी
    बस अपनी बकैती।

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