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Monday, January 21, 2013
Saturday, January 19, 2013
आज की सुबह !
छलकती है
पहाड़ॊं के पीछे
पिघली चांदी की नदी
छोटी छॊटी पंक्तियों में
लगी सफेद बादल की मेड़ॊं पर
पड़ रही छीटें !
आसमान की क्यारियां
हो रही भोर के उल्लास में
नीली पीली !
इस तरफ की
गहरी धुन्ध भरी घाटी में
बाकी है
बिखरी रात की स्याही
आकर जिसे अभी लीप देगी
जलती चांदी की नदी में तैरती
सूरज के चमकदार हीरे की डोंगी !
Friday, January 11, 2013
आधा इन्द्रधनुष !
तुम्हारे बायें कपोल पर
ठीक कान के पास से
नव्य हरित लतिका प्रतान सी
एक हल्की सी रेखा
ठुड्डी के पीछे से शुरू हो कर
बिलकुल वहां तक जाती है
जहां से
गार कर
अमावस की एक भरी-पूरी प्रौढ़ रात
निचोड़े गये दो चार बूंद
कजरारे रंग रंगे तुम्हारे केश
शुरू होते हैं !
शायद वो कोई नस है ...मध्दम सी
नील व्योम की तरफ
लरजती क्वांरी भाप की लतायें !
अक्सर देखा करता हूं मैं उन्हें , निःशब्द
समय की डॊंगी से उतर कर ,
जमे हुये सन्नाटों से लिपटे कुछ क्षणॊं में
जब तुम मगन हो कुछ कर रही
अनभिज्ञ होती हो मुझसे !
तीव्र वर्षण उपरान्त
सद्य स्नात ,खिला हुआ
धवल नीलाभ गगन
और उस पर उस किनारे
अभी अभी उठ कर डूब गये
किसी मधुर राग-सा,
उगा हुआ
आधा इन्द्रधनुष !
ठीक कान के पास से
नव्य हरित लतिका प्रतान सी
एक हल्की सी रेखा
ठुड्डी के पीछे से शुरू हो कर
बिलकुल वहां तक जाती है
जहां से
गार कर
अमावस की एक भरी-पूरी प्रौढ़ रात
निचोड़े गये दो चार बूंद
कजरारे रंग रंगे तुम्हारे केश
शुरू होते हैं !
जैसे सफेद बर्फ के पहाड़ पर
छिटकती सुबह की पीली आंच से उलझ कर नील व्योम की तरफ
लरजती क्वांरी भाप की लतायें !
समय की डॊंगी से उतर कर ,
जमे हुये सन्नाटों से लिपटे कुछ क्षणॊं में
जब तुम मगन हो कुछ कर रही
अनभिज्ञ होती हो मुझसे !
मन में मेरे सामने की पहाड़ी पर
रूपायित हो उठता है तीव्र वर्षण उपरान्त
सद्य स्नात ,खिला हुआ
धवल नीलाभ गगन
और उस पर उस किनारे
अभी अभी उठ कर डूब गये
किसी मधुर राग-सा,
उगा हुआ
आधा इन्द्रधनुष !
Monday, January 7, 2013
खरगोश कहीं के ! ! !
हल्की नीली जीन्स पर
ब्राऊन कलर के मोन्टे कार्लॊ जैकेट
में
प्योर वूलेन ऐरॊ का
टहकार काला मफलर डाले
इस साफ सर्द दुपहर में
तुम
सफेद झक झक फूलॊं की
एक पंक्ति पर झुकी हुयी
थोड़े दूर खड़े मुझ को
कुछ दिखाने की कोशिश में
बड़े खुश-से हो !
खरगोश कहीं के ! ! !
मैं देखता हूं ,
और बस देखता हूं !
शान्त , स्तब्ध .
झाग-से रंग के कोहरे की
एक हल्की परत
मेरे तुम्हारे बीच में है
और उससे कहीं गाढ़ी
ठीक तुम्हारे पीछे
जैसे हवा के जुलाहे ने
बिखरे इन रजत तुहिन कनों से बुनकर
झीना सा भींगा हुआ एक दरीचा
टांग दिया हो
तुम्हारे पीछे !
मैं देखता हूं ,
और बस देखता हूं !
विस्मृत, स्थिर.
खरगोश कहीं के ! ! !
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