Wednesday, March 3, 2010

प्रेम दीक्षा



शिशिर !

न मालूम था
मुझे कि
दिन दिन
पल पल
रव रव
तुम्हारे दुलार के
सान्द्र सोम में
छका है
पगा है
डूबा ,
उतराया है !
यह आम्र वृक्ष !

न मालूम था
मुझे कि
स्नेहातुर लजीले
तुम्हीं ने
फैलाकर बहुत बार
गाढ़े शुभ्र कोहरे
की यवनिका
इस तृषित ढीठ
आम्र वृक्ष से
बहुत देर तक की है
एकान्तिक प्रणय केलि !

और इस नश्वर प्रणय के
क्षणिक व्यापार में ही
किया है दीक्षित उसे
निर्धूम
निःशब्द
अव्यय
प्रेम-शिखा-संकुल में ! ! !

न मालूम था मुझे
लेकिन
देखो ! ! !
वह भोला !
वह ढीठ !
तुम्हारी इस
दारुण विदा घड़ी में
कैसा भकुवाया ,
चुप है !

अब तुम नहीं होगे
पास उसके !
इस ताप में
दह रहा है !
खुद को
मह रहा है !
इतने दिनों
सिखाया है जो
प्रेम तुमने
वह अब
इस अन्तिम घड़ी में
हरे गमकते
बौरों के
गदराये छन्दों में
कह रहा है !

10 comments:

  1. बलिहारी जाऊँ !
    मेरे आम्र वृक्ष ! अब बहके-महके-लहके हैं तुम्हारे बौर !
    बार-बार पढ़ने का जी कर रहा है !
    सच कहूँ तो पहली बार मेरे बहुत नजदीक आये तुम इस अपनी कविता की मार्फत !
    वैसे मार डालने वाली अदा है प्यारे ! बहुत क़त्ल होंगे इस तप्त-गंध से !
    अंतिम का प्रवाह निरख रहा हूँ, खुद ही बह-बह जा रहा हूँ !

    कितना मौजूँ है यह -
    "देखो ! ! !
    वह भोला !
    वह डीठ !
    तुम्हारी इस
    दारुण विदा घड़ी में
    कैसा भकुवाया ,
    चुप है !"


    अब आज के लिये बस ! ब्लॉग-पढ़ाई आज बन्द ! कविता-सम्मोहन बहुत अधिक है ।
    क्या ऐसा ही नहीं लिखते रह सकते तुम, आर्जव !
    ’आर्जव’ नाम सार्थक हुआ प्यारे !

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  2. फीड अब भी नहीं मिल रही ! भला हो ई-मेल ग्राहकता का !
    धन्यवाद फीडबर्नर !

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  3. सम्मोहित कर देने वाली अद्भुत कविता!
    भई हिमांशु की टिप्पणी से अक्षरशः सहमत.
    ..बधाई.

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  4. इस मुक्त छ्न्द पर सब मात्राएँ, जगण, तगण, भड़भड़, इंच, टेप, यति, गति वगैरा वगैरा सब क़ुरबान।
    तुम प्रेम में पड़ गए हो ऋजु प्रकृति!
    मास्साब सब कुछ कह ही गए हैं। मैं क्या कहूँ अब! आर्जव, अपूर्व, मशाल,दर्पण सरीखी नई पीढ़ी की चेलवाई करने को मन करता है।
    ..कुछ अधिक रचा करो न।

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  5. आर्जव तुम्हारे शब्द दर शब्द और उनका सम्मिलित संघात चमत्कारिक और मारक भाव की सृष्टि करते हैं -
    बहुत घातक है तुम्हारी कवितायी !

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  6. शिशिर और आम्र वृक्ष के इस स्नेह व्यापार गंध को अद्भुत सुवासित शब्दों में उतारना ....
    अद्वितीय ....गुरु का नाम जरुर रोशन करोगे ...कर ही रहे हो ....
    बहुत बधाई और सस्नेह सुभकामनाएँ ...

    @ अरविन्दजी ,
    हाँ ...इस कविता को हिमांशु की कविताओं पर भारी बताया जा सकता है ...

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  7. आर्जव,
    शिशिर और आम्र-वृक्ष ...?? अरे हमहूँ भकुआए हुए हैं...ऐसा कोई लिखता है भला..??
    बिलकुल मार डालने वाली अदा है...
    बच्चे अगर ऐसे ही लिखते रहोगे तो चक्कू-छुरियाँ चल जायेंगी...
    अब तो दिल कर रहा है कहने को -
    तेरा क्या होगा कालिया, गोरका, सांवरा, चितकबरा...और जो भी हैं सबको...
    हाँ नहीं तो...
    शुभकामनाये ...

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  8. कविता में 'डीठ' को ढीठ कर लो !
    गिरिजेश भईया सब कुरबान कर गये, मुंह भी बन्द रखा ! यह काम तो हमें ही न करना है अब !

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