जानता हूं
यह रास्ता कहीं नहीं जाता
फिर भी चल रहा हूं ।
जानता हूं
आगे कुछ नहीं है
फिर भी इसी पर
ढल रहा हूं ।
है अस्वीकार का साहस ।
प्रतिरोध की शक्ति है ।
जानता हूं हासिल हर जोड़ का
शून्य है
फिर भी
स्वयं को कर
एक विलम्बित मौन-सा
इस ही राह पर
बिछ रहा हूं………..
जानता हूं पर चल रहा हूं ………
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Wednesday, March 24, 2010
Sunday, March 14, 2010
दिनों बाद .........
Wednesday, March 3, 2010
प्रेम दीक्षा
शिशिर !
न मालूम था
मुझे कि
दिन दिन
पल पल
रव रव
तुम्हारे दुलार के
सान्द्र सोम में
छका है
पगा है
डूबा ,
उतराया है !
यह आम्र वृक्ष !
न मालूम था
मुझे कि
स्नेहातुर लजीले
तुम्हीं ने
फैलाकर बहुत बार
गाढ़े शुभ्र कोहरे
की यवनिका
इस तृषित ढीठ
आम्र वृक्ष से
बहुत देर तक की है
एकान्तिक प्रणय केलि !
और इस नश्वर प्रणय के
क्षणिक व्यापार में ही
किया है दीक्षित उसे
निर्धूम
निःशब्द
अव्यय
प्रेम-शिखा-संकुल में ! ! !
न मालूम था मुझे
लेकिन
देखो ! ! !
वह भोला !
वह ढीठ !
तुम्हारी इस
दारुण विदा घड़ी में
कैसा भकुवाया ,
चुप है !
अब तुम नहीं होगे
पास उसके !
इस ताप में
दह रहा है !
खुद को
मह रहा है !
इतने दिनों
सिखाया है जो
प्रेम तुमने
वह अब
इस अन्तिम घड़ी में
हरे गमकते
बौरों के
गदराये छन्दों में
कह रहा है !
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