अलग होते मुझ के साथ
बहुत दूर तक टूटा नहीं
तुम्हारी पुकार का स्वर !
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दूर निकल आये मुझ के साथ
उस स्वर के पीछे बचा
सन्नाटा अब भी है !
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सुनायी देता है लेकिन
सुनता नहीं हूँ
उस सन्नाटे का खालीपन !
सुनायी देता है लेकिन
ReplyDeleteसुनता नहीं हूँ
उस सन्नाटे का खालीपन !
-सुन्दर पंक्तियाँ!
सन्नाटे की रिक्तता को अनुभूति बनाये यह कौन है भास्वर कवि?
ReplyDeleteजैसे विलंबित में कोई करूण पुकार टूटकर अचानक
ReplyDeleteगहराती है मौन को.
यूं ही ये पंक्ति बन गई ये कविता पढ़कर.
तुम , ’उसने’ कहा, बस इसलिये...
ReplyDeleteफिर !
मुझे तो द्वैध दिखता है भई ! मुझ-स्वर-सन्नाटे के बीच का खालीपन भी !
हम बोलेंगे तो बोलोगे कि बोलता है :)
ReplyDelete"उस सन्नाटे का खालीपन !" की जगह "उस सन्नाटे को" कैसा रहेगा ?
अति सुन्दर !
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