Friday, October 23, 2009

क्यों धूप क्यों !


धूप !
आजकल हर सांझ
जाने से पहले तुम ,
इतनी गहरी पीली
जर्द
क्यों हो उठती हो ?

क्यॊं
पेड़ों के मटमैले हरे झुरमुट से रिसकर
पीछे दीवार के पर्दे पर पड़ते
तुम्हारे
निर्वाक व निमीलित बिम्ब
इतने घने, प्रगल्भ
व प्रगाढ़ पीत हो जाते हैं
कि
अनिमेष उन्हें देखते देखते
तन्मय मैं महसूस करने लगता हूं
सृष्टि के उन बिल्कुल आदिम शुरुआती दिनों के
उस प्रथम पुरुष की आहट
अपने भीतर !

धूप !
तुम्हारे इस अद्भुत शान्तिमय
निःशब्द पीलेपन पर
मैं अचानक
बहुत कुछ ---कुछ बहुत ज्यादा ---विशाल व सुन्दर ---
कह देना चाहता हूं !
शब्दों में भर देना चाहता हूं !
लेकिन
क्यों ?......... धूप !!! ?
बहुत छटपटा कर भी
बहुत खॊजबीन कर भी
अन्ततः
मैं कुछ कह नहीं पाता !
तुम्हारी उस
भव्य पीत निस्तब्धता की
मधुरिम लय को
जो बांध सके
ऎसे शब्दों की श्रृंखला
सिरज नहीं पाता !!!

क्यों धूप क्यॊं ?

6 comments:

  1. अनिमेष उन्हें देखते देखते
    तन्मय मैं महसूस करने लगता हूं
    सृष्टि के उन बिल्कुल आदिम शुरुआती दिनों के
    उस प्रथम पुरुष की आहट
    अपने भीतर !
    -----
    अद्भुत शब्द संयोजन और भाव.
    अत्यंत खूबसूरत रचना

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  2. सुन्दर कविता , मुझे पता नहीं है क्यों धुप है :)

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  3. उम्दा भाई मेरे उम्दा...

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  4. वाह बहुत खुब ...........ऐसे ही लिखते रहे!

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  5. इस कविता की प्रशंसा के लिए शब्द नहीं मिल पा रहे हैं.

    छात्रावास में अपने कमरे के पीछे पश्चिमी सिरे पर बने चबूतरे पर बैठकर साँझ को स्वयं में उतरते कितनी ही बार देखा होगा...वे पल एकदम से सजीव हो उठे.

    आपकी कविताओं का सबसे सशक्त पक्ष जो है वह है विचारों की मौलिकता और भाषा की प्रांजलता. एक अनिर्वचनीय भाव प्रवाह होता है आपकी कविताओं में. पढने पर कुछ पलों के लिए सब कुछ थम जाता है.

    बहुत ही अद्भुत लेखन है आपका. यह आशा नहीं अपितु विश्वास है कि आने वाले समय में आप हिन्दी काव्य के एक बहुत ही सशक्त स्तम्भ होंगे.

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