Wednesday, February 25, 2009

परावर्तन

आज मुझसे
कहा तुमने
कि
“बहुत अच्छे” ।

तो
जरूरी नहीं
कि कहूं ही मैं तुमसे
“धन्यवाद” ।


क्यॊंकि
कभी अगर फिर
कहोगे तुम
“कमीने”
तो निश्चित ही
तुम्हें पीटकर
अपना वक्त जाया करने के बारे में
मैं नहीं सोचूगां ।


दरसल , कल ही एक जगह सुना है मैंने
कि नौसेना के कुछ परमाणु वाहक पोत
परावर्तित करने के बजाय सोख लेते है
राडार की खॊजी तरंगों को ।

6 comments:

  1. आर्जव बहुत सुन्दर बात कही

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    चाँद, बादल और शाम

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  2. विचार उत्तम है !!!
    नौसेना के युद्ध पोत के बारे में भले ही कल सुना हो परन्तु बुद्ध के बारे में तो पलहे से ही अवगत रहे होगे.
    फर्क इतना है कि वहां परावर्तन सिर्फ एक ही तरह का होता था.

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  3. वाह...वाह...आर्जव जी क्या कविता लिखी है आपने...सीधे सादे शब्दों में गहरी बात...वाह.

    नीरज

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  4. छोटे लफ्जों में सुंदर बात कह दी है...

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  5. बहुत अच्छे....!

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  6. क्या यार अभिषेक क्या लिखते हो तुम्हारी कविता तो पूरी तरह समाज के परावर्तन स्वाभाव पर आधारित है ! abhishek dubey

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