तो बची रह गयी
अगली खुराक ,
मेज पर पड़ी है
धूल फांकती,
किसी दिन फेंक दी जायेगी
एक अर्थहीन निर्मम
सहानुभूति के साथ ।
कुछ ऐसे ही
पुरानी कापियों के पिछले पन्नों में
आधी ढरक कर
बिना पूरा हुये ही
चुप हो , ठहर कर
सूख गयी है
कई
तरह तरह की
विचित्र और अद्भुत
कविताएं !
किसी दिन
अपनी अपूर्णता के सन्दर्भ में
परिभाषित होकर
कर दी जायेगी
विस्मृत
सदा के लिये !
जो प्रगट नहीं हुयी वह फिर कविता कैसे हुयी?
ReplyDeleteapki kavitaye kavita hote hote vaicharik nibandh ho jaya karti hain...kavita bhav vyapar hai bhai...vichar vimarsh nahi
ReplyDeletebahut achhi kavita.....bhaiya...well takhayullat.
ReplyDeleteऐसा भी हो सकता है कि पुरानी कापियों के पीछे के पन्नों में सिमट जाने लायक ही रही हों वे पंक्तियाँ. भावावेश के क्षणों में ऐसी ढेर पंक्तियाँ ढुलकती हैं पर विस्तार लेने से पहले ही उपेक्षित हो जाती हैं अपने ही हाथों.
ReplyDeleteदर्द खत्म हो जाने के बाद दवा की खुराक और भावावेश खत्म होने के बाद बच गयी कविता.....अच्छा है , भाई .