तुम्हारी आवाज
छोटे छॊटे
अलग अलग
असंबद्ध टुकड़ों में
बहुत देर तक
गिरती रही
मेरे भीतर के किसी
गहरे
और गहरे
कुएं में
हां कुएं में !
सनसनाती हुयी
तेजी से
नीचे
और नीचे
बढ़ती
तुममें आयी बदलाहट का अर्थ लिये
मरे शब्दॊं की शिराओं में दौड़ती
जिन्दा आवाजें
अपने पीछे
कुछ हल्की फीकी पड़ती
आवाजों का एक धुआं -सा छोड़ती
अन्ततः उस गहरे कुएं में
बहुत अन्दर तक गयी !
लेकिन वहां
सन्नाटा
जमें हुये लावा की तरह
इतना अधिक और गाढ़ा था
कि
शायद
दम घुट गया उनका !
क्योंकि शून्य मन
जोहता हूं बहुत देर से
अभी तक नहीं आयी
कोई प्रतिध्वनि !
अच्छी पंक्तिया लिखी है ........
ReplyDeleteयहाँ भी आये और अपनी बात कहे :-
क्यों बाँट रहे है ये छोटे शब्द समाज को ...?
क्योंकि शून्य मन
ReplyDeleteजोहता हूं बहुत देर से
अभी तक नहीं आयी
कोई प्रतिध्वनि !
आयेगी प्रतिध्वनि ! अभी बहुत देरी नहीं हुई है. बस्स मन की शून्यता को कम करने की जरूरत है.
बेहतरीन रचना
बहुत गहन!
ReplyDeleteप्रतिध्वनि तो तब आये जब आवाज बाहर जाये :)
ReplyDeleteप्रतिध्वनि तो उसी को सुनाई देगी न जिसने आवाज दी है! अक्सर कुएं को यह भ्रम हो जाता है कि यह आवाज मेरे लिए है।
ReplyDeleteसही है।
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