Saturday, June 12, 2010

कविता के विरोध में

भाव पंचर हो गये हैं !



मन न जाने क्यों

अपना मसौदा

कविता को देना नहीं चाहता

है बहुत कुछ पास उसके

कहने को , सुनाने को

कविता को देने को

कविता हो जाने को

लेकिन वह दबाये बैठा है

सटकाये बैठा है ! ! !


वह नाराज है शायद कविता से

कि वह बड़ी डिप्लोमेट हो गयी है !

मन के मसौदों को नीलाम कर रही है !

सभी विधायक दबावों को

फिस्स कर दे रही है

सभी सृजनात्मक बलॊं को बिखेर दे रही है !

5 comments:

  1. हवा भरिए।
    फीस्स या फिस्स ?

    भावों को मुक्त बहने दीजिए। छ्न्द शिल्प की चिंता बगैर। सृजन और बल दोनों सहज ही आएँगे।

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  2. मसौदा कहीं नही खोया है

    वही काटा जो बोया है


    पता नहीं मुझे क्यों लग रहा है कि आप इस पंक्ति को दुबारा देख लें :

    'कविता को न देना नहीं चाहता' (ऊपर से चौथी लाईन)

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  3. गिरिजेश जी का कहा सुनिए !

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  4. "सृजन और बल दोनों सहज ही आएँगे। "
    अब क्या कहें .. ! गुनो प्यारे !

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