भाव पंचर हो गये हैं !
मन न जाने क्यों
अपना मसौदा
कविता को देना नहीं चाहता
है बहुत कुछ पास उसके
कहने को , सुनाने को
कविता को देने को
कविता हो जाने को
लेकिन वह दबाये बैठा है
सटकाये बैठा है ! ! !
वह नाराज है शायद कविता से
कि वह बड़ी डिप्लोमेट हो गयी है !
मन के मसौदों को नीलाम कर रही है !
सभी विधायक दबावों को
फिस्स कर दे रही है
सभी सृजनात्मक बलॊं को बिखेर दे रही है !
हवा भरिए।
ReplyDeleteफीस्स या फिस्स ?
भावों को मुक्त बहने दीजिए। छ्न्द शिल्प की चिंता बगैर। सृजन और बल दोनों सहज ही आएँगे।
मसौदा कहीं नही खोया है
ReplyDeleteवही काटा जो बोया है
पता नहीं मुझे क्यों लग रहा है कि आप इस पंक्ति को दुबारा देख लें :
'कविता को न देना नहीं चाहता' (ऊपर से चौथी लाईन)
गिरिजेश जी का कहा सुनिए !
ReplyDelete"सृजन और बल दोनों सहज ही आएँगे। "
ReplyDeleteअब क्या कहें .. ! गुनो प्यारे !
झकास!
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