चाहने और होने में बहुत अन्तर है !
बहुत कम ही यह होता है कि
“चाहना” “होने” की तरफ पहला कदम हो!
अक्सर चाहना अपने जनमने के कुछ समय बाद ही
आंसू गैस के एक गोले सा फटता है
और यथार्थ में ही कुछ ऎसा घोल देता है
कि उसकी यथार्थता लगभग समाप्त हो जाती है ।
हम एक आभास को ही सच मान लेते हैं
क्योंकि तब तक यह चाहना
हमें अपने उस अन्तिम होने का
एक सुन्दर व सस्ता विकल्प दे चुका होता है !
बहुत कम ही यह होता है कि
“चाहना” “होने” की तरफ पहला कदम हो!
अक्सर चाहना अपने जनमने के कुछ समय बाद ही
आंसू गैस के एक गोले सा फटता है
और यथार्थ में ही कुछ ऎसा घोल देता है
कि उसकी यथार्थता लगभग समाप्त हो जाती है ।
हम एक आभास को ही सच मान लेते हैं
क्योंकि तब तक यह चाहना
हमें अपने उस अन्तिम होने का
एक सुन्दर व सस्ता विकल्प दे चुका होता है !
काश चाहना होना भी होता ! बढ़िया कविता लिखी है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
बहुत बढिया!!
ReplyDeleteप्रभावित करने वाली कविता!
ReplyDeleteगहरी सोच है.
ReplyDeleteहम एक आभास को ही सच मान लेते हैं
ReplyDeleteक्योंकि तब तक यह चाहना
हमें अपने उस अन्तिम होने का
एक सुन्दर व सस्ता विकल्प दे चुका होता है !
एक सुन्दर दार्शनिक विचार !!!