मैं
अपना जीना
अपना होना
अपनी तृप्त अतृप्त आकाक्षांए
अपने द्वेष अपनी प्रसन्नताएं
और इन सब को मिलाकर
जो बिलकुल मैं हूं वह
थोड़ा थोड़ा रोज रोज
शब्दों को देता जाता हूं ।
हांलाकि शब्द फिर से
पूरा पूरा ,दुबारा ,कहीं
किसी से भी ,ठीक वैसा ही
नहीं कह पायेगें मुझे
लेकिन
शायद
अपनी अक्षरता में सतत गतिशील
अपने साथ वे
एक दो कन मुझे भी
अक्षर कर जायेंगे ।
अपना जीना
अपना होना
अपनी तृप्त अतृप्त आकाक्षांए
अपने द्वेष अपनी प्रसन्नताएं
और इन सब को मिलाकर
जो बिलकुल मैं हूं वह
थोड़ा थोड़ा रोज रोज
शब्दों को देता जाता हूं ।
हांलाकि शब्द फिर से
पूरा पूरा ,दुबारा ,कहीं
किसी से भी ,ठीक वैसा ही
नहीं कह पायेगें मुझे
लेकिन
शायद
अपनी अक्षरता में सतत गतिशील
अपने साथ वे
एक दो कन मुझे भी
अक्षर कर जायेंगे ।
अपने साथ वे
ReplyDeleteएक दो कन मुझे भी
अक्षर कर जायेंगे ।
बिलकुल सही कहा आपने ...अच्छी रचना
अपनी अक्षरता में सतत गतिशील
ReplyDeleteअपने साथ वे
एक दो कन मुझे भी
अक्षर कर जायेंगे ।
bahut achhi lagi ye panktiyan,rachana bahut pasand aayi badhai
आर्जव जी,बहुत बढिया रचना लिखी है।बधाई स्वीकारें।
ReplyDeleteबहुत ही बढिया लिखा ... बधाई।
ReplyDeleteपढ़ लिया, अच्छा लगा । बहुत दिनों बाद पढ़ा ।
ReplyDeletejaisa aisi kavitao ko padhke lagta hai...chhoti chhoti baato mein kitni badi baat keh di
ReplyDeleteअहा!!!बहुत सुन्दर !!!
ReplyDeleteहांलाकि शब्द फिर से
पूरा पूरा ,दुबारा ,कहीं
किसी से भी ,ठीक वैसा ही
नहीं कह पायेगें मुझे
सब कुछ शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता , हम जानते हैं , किन्तु फिर भी हर रोज खुद को शब्दों में पिरोने की कोशिश प्रक्रिया सतत निर्बाध जारी है.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !!!