हर रोज
सूरज ही नहीं ,
मैं भी
उगता
और डूबता हूँ .
हर रोज
चाँद ही नहीं ,
मैं भी
पिघलता
और बिखरता हूँ .
हर रोज
साँझ की नीली परी ही नहीं ,
मैं भी
धीरे धीरे उतरता ,
उदास होता हूँ.
हर रोज
धुधलके में जुगनू ही नहीं,
मैं भी
जलता
और बुझता हूँ
हर रोज
रात में वो पेंड़ ही नही
मैं भी
अंधेरे की धुन पर दर्द सा
बजता हूँ ।
हर रोज
घने कुहरे में सुनसान सड़क की वो पीली बत्ती ही नहीं
मैं भी
(तुम्हारी) स्मृतियों की भींगी सफेद पीली उजास में
स्तब्ध हो उठता हूँ।
हर रोज !
सूरज ही नहीं ,
मैं भी
उगता
और डूबता हूँ .
हर रोज
चाँद ही नहीं ,
मैं भी
पिघलता
और बिखरता हूँ .
हर रोज
साँझ की नीली परी ही नहीं ,
मैं भी
धीरे धीरे उतरता ,
उदास होता हूँ.
हर रोज
धुधलके में जुगनू ही नहीं,
मैं भी
जलता
और बुझता हूँ
हर रोज
रात में वो पेंड़ ही नही
मैं भी
अंधेरे की धुन पर दर्द सा
बजता हूँ ।
हर रोज
घने कुहरे में सुनसान सड़क की वो पीली बत्ती ही नहीं
मैं भी
(तुम्हारी) स्मृतियों की भींगी सफेद पीली उजास में
स्तब्ध हो उठता हूँ।
हर रोज !
उम्दा रचना . लिखते रहिये .
ReplyDeleteबहुत सुंदर, और विचारणीय भी.
ReplyDeleteआर्जव अच्छा लिखते हो। मेरे ब्लाग पर हायकु के लिये टिप्पणी के लिये धन्यवाद। मैं तुमसे सहमत हूँ।
ReplyDeleteखाम्खाव्ह ही सही...... पर अपनी कविता याद आ गयी.....
ReplyDeleteये अस्त होता सूरज
सुना जाता है अपनी दास्ताँ
भोर को जल देकर स्वागत
करने वाली दुनिया
शाम तलक तो इनको भी थका देती है
इनकी प्रचंडता को विराम लगा देती है
मेटा देती है इनका वजूद
और मेरा तो वजूद ही क्या ?
ख़ुद क्यों नहीं थकती
ख़ुद क्यों नहीं रूकती
ये दुनिया
इसी मायावी दुनिया में रह कर जी रहे हैं हम
हम तो श्याद सूरज से भी ज्यादा
प्रचंड है
पर ढीठ भी सूरज से jyada
अच्छा लिखते हैं आप। बधाई।
ReplyDelete------
जीवन का सूत्र...
NO French Kissing Please!