Wednesday, September 12, 2018

एक नुकीला तिरछा सा कांच


#ध्यान कविता


बाहरी लोग,
दुनियां,
तमाम बातें,
अधूरी इच्छाऎं ,
बिछड़े हुये लोग,
लौट न सकें जहां वापस
वो छूट चुके घर !


सब धंसे रहते है ऐसे
जैसे मन
कोई मांस का मोटा सा चिथड़ा हो
और  एक नुकीला तिरछा सा कांच
उसमें बिंधा पड़ा हो !

हल्की सी कसमसाहट पर भी
करक उठता हो तेज दर्द 

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