Friday, February 27, 2009

कवि

अभी रुको थोड़ी देर ।
धैर्य धरो ।

आने दो वे मुहूर्त
जिनमें तुम्हारे
अन्तर्जगत
और
वाह्यजगत
के सब भेद
मिट जांय ।


तब तुम
अपने को कवि कहना ।

मैं तुम्हारे चरण धोकर पियूगां
और
सभ्यता समय के पथ पर
अपनी गति के बारे में
तुम्हारे इंगित की बाट जोहेगी ।

5 comments:

  1. सभ्यता समय के पथ पर
    अपनी गति के बारे में
    तुम्हारे इंगित की बाट जोहेगी ।

    सच कहा . वास्तव में कवि तो वही थे जिनकी सोच सभ्यता को दिशा निर्देश देती थी .

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  2. मतलब तो अबूझ है. कितने मुहूर्त चाहियें, क्या एक दुर्लभ क्षण काफ़ी नहीं?

    कविता अन्तर्जगत और बाह्य जगत के सूक्ष्म संकेतों को प्रकट ही तो करती है . इस एकतान परिस्थिति को यदि कवि समझ पाता तो कविता में निरन्तर सत्य और सुन्दर की खोज नहीं कर रहा होता.

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  3. बेहतरीन प्रस्तुति सदैव आपके ब्लॉग आकर ताजगी महसूस होती है

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  4. अच्छा लगा लेकिन बात मेरी कुछ समझ कुछ समझ में नहीं आई .

    सभ्यता समय के पथ पर
    अपनी गति के बारे में
    तुम्हारे इंगित की बाट जोहेगी ।
    जरा समझाने की कोशिश करिए .

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