सोचता हूं सो जाऊं !
खो जाऊं !
बोझिल तन !
स्नेहिल मन !
निढाल सब छोड़ू !
मिट जाऊं !
लेकिन फिर ……….
सांझ थोड़ी देर तक की
तुम्हारी संगति याद आती है -------
खो जाऊं !
बोझिल तन !
स्नेहिल मन !
निढाल सब छोड़ू !
मिट जाऊं !
लेकिन फिर ……….
सांझ थोड़ी देर तक की
तुम्हारी संगति याद आती है -------
तुम्हारे सानिध्य का केसर
अभी तक
मन की देह पर बिखरा हुआ है !
तुम्हारे सरल मधुर हास का चन्दन
अभी भी झींना झींना
आती जाती सांसों में गमक रहा है !
याद आता है तो कस्तूरी बन गया लगता है
विदा के अन्तिम क्षणों में
तुम्हारे उन पंकिल पलकॊं का
करुणामय आरोहण अवरोहण ! ! !
सदा रहेगा
चाह में तेरी
यह केसरिया मन ! !
बहुत बढ़िया...भावपूर्ण!
ReplyDeleteजैसे रात भिगोये गये चने से
ReplyDeleteधीरे धीरे निकलता है
चने में मौजूद पूरे प्रोटीन से बना
एक टुइंया-सा अंकुर !
और भर देता है
भीतर
तमाम बनस्पतिक क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के बाद
ढेर सारा विटामिन
जो प्यार के न रहने पे भी रह जाता है
है ना अभिषेक !!
धीरे धीरे मन में उतरती .... गहरे एहसास लिए सुंदर रचना ......
ReplyDeleteइस टेम्पलेट में तुम्हारी यह कविता मुझे और भी सुन्दर क्यों लग रही है !
ReplyDeleteन जाने !