Friday, November 6, 2009

अवसाद के दिनों में सच !


सच इतना अधिक है
चहुं ओर हमारे
खड़ा बैठा चलता दौड़ता
कि हम सह नहीं पाते हैं
फट फट जाते है
माया मिथ्या आभास
कह कह उसे टरकाते हैं !

किनारे बेवकूफॊं जैसा
चुपचाप खड़ा
अपने पातॊं पर
बिलखले आसमान के
घनीभूत दुखॊं को समोता
न हसता न चिचियाता
अनभिप्रेत खड़ा पेड़ ! ! !

टाईट जीन्स ठिक ठाक टी शर्ट पहने
वक्ष उदर को विकर्ण में काटते
टंगने वाला बैग लटकाये
हाथों में मोबाइल और रुमाल लिये
खुद से शुरु और खुद पर खत्म
सड़कों पर बेलौस फड़फड़ाती
अर्थहीन लड़कियां ! ! !

इन्हें सूंघकर
बहुत दिनों से पेचिश के रोगी
भूखे-प्यासे-मुचमुचाये- हड्डियाये
अस्थिशेष-मरणासन्न पिल्ले जैसी
किसी अनादि इच्छा का
धीरे से …….टूं से कूकना…….
और फिर चुप हो जाना ! ! !
दृश्य कला संकाय के
हद तक अव्यवस्थित झालेदार
सीड़ बस्साते स्टोर रुम में
पेप्सी-कोला की मुड़ी तुड़ी
टिन व प्लास्टिक की खाली बोतलों को
छड़ के ढ़ाचे में
अटका अटका कर बना आदमी !
हाथ-पैर-पेट-पीठ चिपकी हुयी खाली बोतलें
जोड़,,घुटने गरदन और कोहनी के कसे हुये छड़
एकदम श्‍लथ ,
न आक्रोश , न दीनता !

सच है !
सब स़च है !

(जन. 2008)

5 comments:

  1. आर्जव ,
    अगर आधुनिक कविता कोई हो और वह समझ में आ जाए और एक हताश सी भावना का स्फुरण कर दे सहसा तो वह ऐसी ही होनी चाहिए ! बिलकुल ऐसी ही ! अवसाद के दिनों में सच जैसी !

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  2. @ टाइट जींस ... अर्थहीन इन्हें सूँघ कर

    लगता है भैया परेम वरेम नाहीं किए! ई ठीक नहीं है। हिमांशु मास्साब से रसिकई की कक्षा लै लो।
    _______________

    मिश्र जी की बात में दम है।

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  3. बहुत बढ़िया रचना।
    अवसाद के क्षणों को शब्दों मे बखूबी समेटा है।

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  4. बहुत सुन्दर एहसास की कविता. सन्दर्भ कही कही मुझे 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' के परिवेश से जुडे लगे. जीवंत हो उठे समानार्थक एहसास अपने समय के.
    बहुत खूब

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  5. पता नहीं ! ऐसा लिखना जरूरी है क्या ?

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