सब कुछ तुम्हारा ही है !
मेरी जीत , मेरी हार
मेरी वासनाएं ,आकांक्षाए
मेरे पाप ...........
सब कुछ तुम्हारा ही है !
मेरे मद , मेरे मोह
मेरी उद्विग्नताये , व्यग्रताएं
मेरा अस्तित्व ..........
सब तुम्हारा ही है !
मेरा क्रोध , मेरा प्रेम
मेरी उदघोशनाए , गर्जनाये
मेरे अपराध.....
सब तुम्हारा ही है !
तुमसे विलग है
मेरा
बस एक निर्णय --
सही अथवा ग़लत का !
पाप अथवा पुन्य का !
तुम्हारे इन भव्य उपहारों के प्रति .......
जिससे
मै मै हूँ
और
तुम तुम हो
एकदम प्रछन्न .......दूर दूर
अन्यथा....... ..............!!!!!!!!!!!!!!
सब कुछ तुम्हारा ही है !
ReplyDeleteमेरी जीत , मेरी हार
मेरी वासनाएं ,आकांक्षाए
मेरे पाप ...........
बहुत खूब, और एक बात जो अच्छी लगी वह यह की आपने अपने शब्द " मेरे पाप....." पर ही समेत दिए ! 'मेरे पुण्य' भी लिख देते हो बडबोली बात हो जाती !
बहुत गहरी रचना है, वाह!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना !!!!
ReplyDeleteएक लम्बे समयांतराल के बाद आपका ब्लॉग पर पुनः सक्रिय होना बहुत ही अच्छा लगा.
अन्यथा....... ..............!!!!!!!!!!!!!!
ReplyDeleteकितना कुछ न कहते हुए भी कितना कुछ कह जाती है कविता
चलो अच्छा हुआ...!
ReplyDeleteतुम्हें वापस अपनी लय में देख रहा हूं।
ढेर सारी शुभकामनाएं...!
आते रहो..।
अच्छा लगेगा.।