(यह विनय भईया के ब्लाग पर टिप्पणी के लिये लिख रहा था , फिर सोचा कि टिप्पणी को थोड़ा और खिला पिला कर अपना भी स्वार्थ साध लूं !)
एक बात है कि नये साल पर या किसी अन्य त्यौहार पर लोग झूठ खूब बोलते हैं !अपने साल भर के झूठ के अकाउन्ट का आधा इन्हीं दिनों मे खर्च कर देते है ! एक से एक फर्जी बधाई सन्देश ! झूठ मूठ की शुभकामनायें !
कैम्पस में घूम रहा था . सड़कों पर सायकिल या मोटर सायकिल से गुजरते लोग एक दूसरे पर वही रटा हुआ जमुला लहरा रहे थे . यूं लग रहा था जैसे बची हुयी रोटियां एक दूसरे पर फेंक रहें हों !
वर्ष चाहे दो हजार आठ हो या नौ या दस , बदलता कहां कुछ है ! जब तक कुछ भीतर न बदले !
एक बात है कि नये साल पर या किसी अन्य त्यौहार पर लोग झूठ खूब बोलते हैं !अपने साल भर के झूठ के अकाउन्ट का आधा इन्हीं दिनों मे खर्च कर देते है ! एक से एक फर्जी बधाई सन्देश ! झूठ मूठ की शुभकामनायें !
कैम्पस में घूम रहा था . सड़कों पर सायकिल या मोटर सायकिल से गुजरते लोग एक दूसरे पर वही रटा हुआ जमुला लहरा रहे थे . यूं लग रहा था जैसे बची हुयी रोटियां एक दूसरे पर फेंक रहें हों !
वर्ष चाहे दो हजार आठ हो या नौ या दस , बदलता कहां कुछ है ! जब तक कुछ भीतर न बदले !
भीतर कुछ बदल क्यों नहीं लेते? जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि की बात झूठी तो नहीं होती . कहीं इसीलिये तो नहीं तुम्हें फ़ेकी गयी रोटियों में कोई ममता की, प्रेम की जूठी रोटी नहीं मिली.
ReplyDeleteकिसी दिन विशेष का सौहार्द्र समझो,स्वार्थ ही न साधो.
नहीं जानते-स्वार्थ का रोग प्रेम के राग के आगे घुटने के बल हो जाता है.
चलो अच्छा हुआ कि टिप्पणी को प्रविष्टी बना डाला पर कमसकम टिप्पणी भी करनी चाहिए थी! इतना भी स्वार्थी मत बनो! अरे मज़ाक कर रहा हूँ। चलो अब एक छोटी और शानदार टिप्पणी यहाँ कर दो...
ReplyDelete---मेरा पृष्ठ
चाँद, बादल और शाम
@वर्ष चाहे दो हजार आठ हो या नौ या दस , बदलता कहां कुछ है ! जब तक कुछ भीतर न बदले !
ReplyDeleteदिल की बात